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________________ 56 | जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || संसार, इन्द्रियों के भोग्य पदार्थ आदि का आदर करता है, वह स्थायी सुख नहीं प्राप्त कर सकता है। अस्थायी सुख का वियोग अवश्यंभावी है, वह पर है, उस सुख का अंत दुःख में होता है तथा वह पर पदार्थों पर निर्भर है। बाहरी सुखों को नित्य, सुखद और सुन्दर मानकर भोग करना अज्ञान है, अविद्या है। पातंजल योगसूत्र में कहा है :- “अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या" अर्थात् अनित्य, अशुचि, दुःख एवं अनात्म में क्रमशः नित्य, उत्तम, सुन्दर, सुख तथा आत्मभाव का अनुभव होना अविद्या है, अज्ञान है। जैन धर्म में धर्म-ध्यान की चार भावनाओं - अनित्य, अशरण, एकत्व एवं अशुचि भावना में इसी तथ्य को व्यक्त किया गया है। आशय यह है कि जो शरीर में, इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों में, भोगों में जीवन मानता है, वह अज्ञानी है. मिथ्यात्वी है। वीतराग भगवान को छोड़कर कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसमें दोष नहीं हो। यदि व्यक्ति में दोष नहीं होता, सर्वांश में निर्दोष होता तो वह भगवान ही होता। कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से दोषी भी नहीं होता है। यदि पूर्ण दोषी होता तो स्वभाव नष्ट हो जाता और उसका अस्तित्व नहीं रहता। अतः प्रत्येक साधारण व्यक्ति में आंशिक गुण और आंशिक दोष होता है। उस आंशिक दोष में हानि-वृद्धि होती रहती है। जब तक आंशिक दोष का बीज है, वह बीज बढ़कर कभी भी वृक्ष का रूप धारण कर सकता है। यह नियम है कि दोष करने से होता है, अतः कृत्रिम होता है; दोष का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वह हमारा किया हुआ अथवा माना हुआ होता है। अतः दोष अस्वाभाविक होता है, इसलिए वह मिटाया जा सकता है। इसके विपरीत गुण स्वाभाविक होता है। वह किसी क्रिया या कर्म का फल नहीं होता है, अतः सदैव ज्यों का त्यों रहता है। भले ही आवरण आ जाने से, विस्मृति हो जाने से या अपहरण हो जाने से वह प्रकट नहीं हो अथवा न्यूनाधिक रूप में प्रकट हो। इसलिए जो चेतना का स्वभाव है, वह ही साधक का साध्य या लक्ष्य है, उसका पूर्ण प्रकट हो जाना ही स्वरूप में अवस्थित होना है। सिद्धावस्था उसी का नाम है। ज्ञान-दर्शन गुण का अनादर ही ज्ञान-दर्शन गुण पर आवरण आना है। मोह के कारण सम्यक् स्वरूप एवं स्वरूपाचरण गुण की विस्मृति होती है। गुणों के अपहरण तथा विमुखता से दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य (औदार्य, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य एवं सामर्थ्य) गुण दूर प्रतीत होते हैं, किन्तु वे नष्ट नहीं होते हैं। जो गुणवान है, उसके गुण ही पूजनीय है; शरीर पूजनीय नहीं हैं। जो गुण प्रकट करने की प्रेरणा देता है एवं मार्ग या उपाय बताता है, वह गुरु है। गुरु किसी भी साधक का दोष दूरकर गुण प्रकट नहीं करता है। यह कार्य या पुरुषार्थ साधक को स्वयं ही करना होता है। गुण स्वभावरूप होने से महिमावन्त एवं पूजनीय होते हैं। गुरु का शरीर पूजनीय नहीं होता है। गुरु वह है जो अपने समस्त दोषों एवंदुःखों से मुक्ति दिला दे। कबीर के शब्दों में - गुरु गोविंद दोनों खड़े, किसके लागूं पाय। बलिहारी गुरुदेव की, गोविंद दियो मिळाय।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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