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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 55 तथा कर्त्तव्यपरायणता, निर्भयता, निष्कामता, निरहंकारिता स्वतः प्राप्त होती है। जिससे मानव अपने वास्तविक लक्ष्य, चिर शान्ति, आन्तरिक प्रसन्नता, स्वाधीनता, प्रमुदितता, अमरता की उपलब्धि पाकर कृतकृत्य हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जिससे स्वाभाविक व स्वभाव के ज्ञान के आदर में ज्ञान का आवरण हटकर स्वरूप से अभिन्नता होती है, वह ज्ञान जिससे भी अभिव्यक्त हो, वह ही गुरु है । गुरु का उपदेश, संदेश, आदेश तभी आचरण में आयेगा, जब व्यक्ति निज ज्ञान स्वयंसिद्ध श्रुतज्ञान का आचरण करेगा। बाहरी कार्यों की शिक्षा देने वाला भी गुरु कहा जाता है। उसके प्रति भी कृतज्ञता होना अच्छी बात है। लेकिन उसका लक्ष्य सांसारिक और भौतिक कार्यो की सिद्धि मात्र है। आध्यात्मिक दृष्टि से गुरु वह है जो लक्ष्य का, निर्विकारता का, दुःख व दोषों से मुक्ति का अनुभव के स्तर पर मार्गदर्शन करा दे। दोष की जड़ तक पहुँचा दें। जिससे श्रुतज्ञान मिले, जो स्वयं निर्दोष है या इस दिशा में तत्पर है, वह ही गुरु है। अतः व्यक्ति का शरीर गुरु नहीं, उसकी सत्यवाणी ही गुरु है। सत्य वह है, जो अविनाशी है । जैन परम्परा में गुण पूजनीय है, व्यक्ति पूजनीय नहीं है। जैन दर्शन में पाँच नमनीय हैं - अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । ये पाँचों गुणवाचक शब्द हैं। कोई भी व्यक्ति जिसने राग-द्वेष का क्षय कर दिया है, वह अरिहन्त है; जो शरीर और संसार से मुक्त है, वह सिद्ध है; जो पंचाचार का पालन करते और करवाते हैं, वे आचार्य हैं; जो शिक्षा देते हैं, वे उपाध्याय हैं तथा जो संयम का पालन करते हैं, वे साधु हैं। ये पाँचों पद किसी सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, दार्शनिक मान्यता, क्रिया-काण्ड आदि से सम्बन्धित नहीं हैं और न ही किसी व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित हैं। इनका सम्बन्ध गुणों से है। जिससे भी दोष दूर करने, निर्दोष होने की प्रेरणा मिले, वे सब गुरु हैं। इस प्रकार गुरु व्यक्ति नहीं होकर ज्ञान होता है। गुरु निर्ग्रन्थ होता है । वह ग्रन्थि अर्थात् परिग्रहरहित होता है । वह दया- अनुकम्पा स्वरूप धर्म का उपदेश देता है। इस उपदेश का आचरण ही गुरु का आदर करना है । यह धर्म मंगलमय एवं कल्याणकारी होता है । इन पाँच पदों में अरिहन्त और सिद्ध वीतराग और निर्दोष होने के कारण तथा स्वाभाविक दिव्य गुणों धार होने से देव हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु सरागी और सदोष हैं तथा सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिए राग-द्वेष आदि दोषों को जीतने हेतु साधनारत हैं। इनका व्यक्तित्व आंशिक दोषों से युक्त है। जो व्यक्ति रागी होता है, उसका आंशिक राग निमित्त पाकर भयंकर दोष में बदल सकता है। जैसा कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के उदाहरण से ज्ञात होता है। अतः व्यक्ति नहीं, गुण ही नमन-योग्य व वन्दनीय होता है। गुण स्वभावरूप होने से पूजनीय व सम्माननीय होता है। अतः इनके व्यक्तित्व में आंशिक निर्दोषता व आंशिक स्वाभाविकता गुणही पूजनीय और वन्दनीय है। इन गुणों की अभिव्यक्ति का ज्ञान ही गुरुतत्त्व है और वह साधक के लिए ग्राह्य व उपादेय है। सभी को स्वभाव से नित्यत्व, अपनत्व (प्रेम), सुख और सुन्दरत्व पसंद है; किसी को विनाश, द्वेष, दुःख और अशुद्धि इष्ट नहीं है । परन्तु जो इस निजज्ञान का आदर नहीं करके; परिवर्तनशील व नश्वर शरीर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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