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|| 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी
51 गुरु नाम धराने वालों की भारत वर्ष में कमी नहीं है। कहा जाता है कि लाखों की संख्या में गुरुओं की फौज है। जिनके पास आलीशान कोठी-बंगले हैं। स्कूटर व कारें हैं। मौज करने के लिए जिनके पास धन से तिजोरियां भरी पडी हैं। मन को गुदगुदाने वाले बच्चे हैं, मनोरजंन के लिए सुन्दर नारियां है। क्या ऐसे गुरु हमें पार ले जा सकते हैं? कहना होगा कभी नहीं ले जा सकते । विशेषज्ञों ने 'गुरु' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है। "गुशब्दस्त्वन्धकारस्य ‘रू शब्दस्तन्निरोधकः ।" गुरु शब्द में दो अक्षर हैं- 'गु' अर्थात् अन्धकार, 'रु' यानी प्रकाश । जो अज्ञानान्धकार को हटाते हैं और ज्ञान के प्रकाश में लाते हैं वे ही गुरु होते हैं । गुरु की महिमा अपार, अनन्त व अगाध है । गुरु की वाणी जन-कल्याणी होती है। गुरु की वाणी में भाषा की कोमलता एवं भावों की गम्भीरता होती है। सच्चे गुरु की वाणी श्रोता के अन्तर्मन में नवचेतना का संचार करती है । जीवन में नई उमंग भरती है। गुरु की वाणी नर को नारायण बनाने का कार्य करती है और आत्मा को परमात्मा बना देती है। गुरु महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में नहीं समाता है। मेरी क्षमता भी नहीं कि मैं सीमित समय में गुरु महिमा को सम्पूर्ण रीति से आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ । गुरु शिष्य की आस्था का आधार है, केन्द्र है। गुरु कृपा से गूढ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है। क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम अध्ययन में प्रभु ने फरमाया -
“पसन्ना लाभइस्सन्ति, विउलं अद्वियं सुयं ।” (उत्तराध्ययन, 1.46) गुरु कृपा वह सूर्य है जिसके प्रकाश में अन्तर का अन्धकार मिट जाता है । गुरु कृपा अनन्त फलदायिनी है। कबीरदास ने कहा
"तीरथ नहाये एक फल, सन्त मिले फल चार।
गुरु मिले अनन्त फल, कहत कबीर विचार" गुरु कृपा से विघ्नों का पहाड़ ढह जाता है। गुरु कृपा से जीवन धन्य-धन्य हो जाता है। गुरु बड़े कृपालु होते हैं। उनकी कृपा दृष्टि से हत्यारे हरि, पापी पावन, दुष्ट मिष्ट एवं दुराचारी सदाचारी बन जाते हैं। भगवती सूत्र में भगवान ने गुरु को धर्मदेव की उपमा दी है-“गोयमा! जो इमे, अणगारा भगवन्तो इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारी से तेण टेण एवं वुच्चइ धम्मदेवा।"गुरु तिन्नाणं तारयाणं होते हैं। कहा है- “जगत को तारने वाले, जगत में सन्तजन ही हैं।
गुरु के गुणगान जितने किए जायें कम हैं। वे चतुर्विध संघ के पिता हैं । पुत्र के लिए पिता जितना हितकारी होता है उससे भी हजारों गुणा बढ़कर गुरु उपकारी होते हैं । गुरु सूर्य हैं । जिस प्रकार सघन अंधकार को सूर्य की चमचमाती रश्मियाँ नष्ट कर देती हैं, उसी प्रकार श्रुत, शील, बुद्धि और ज्ञान संपन्न गुरु संघ के अज्ञान अंधकार को नष्टकर भानु की तरह चमकते हैं। गुरु गुणों के खजाने हैं, वे निरन्तर शासन की उन्नति करते हैं।
गुरु “चन्देसु निम्मलयरा' चन्द्र से भी निर्मल एवं सूर्य से भी तेजस्वी होते हैं। अगरबती की तरह सुगन्धित एवं मोमबत्ती की तरह प्रकाशित होते हैं । शेर की तरह निर्भीक एवं समुद्र की तरह गंभीर होते हैं।
गुरु तीर्थंकर तो नहीं, परन्तु तीर्थंकर के समान उनके अभाव में संघ का कुशलता पूर्वक संचालन करते
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