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|| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी | सब कुछ जान रहे हैं, देख रहे हैं। भगवान का कहना आत्मीयता का सूचक है। क्योंकि महाशतक भगवान महावीर को गुरु मानता है।
गुरु की सेवा करना अच्छी बात है, क्योंकि गुरु सब पापों से निवृत्त हैं। हमने पढ़ा है, सुना है दुनियाँ का सबसे बड़ा वीर, सबसे बड़ा धीर, सबसे बड़ा गंभीर, सबसे बड़ा दक्ष, सबसे बड़ा तत्त्वज्ञ वही हो सकता है जो अपने साथ बुराई नहीं करे । ये (आचार्य श्री हीराचन्द्र जी महाराज की ओर संकेत कर) सबसे बड़े धीर-वीर-गंभीर, दक्ष और तत्त्वज्ञ आपके सामने बैठे हैं।
__अरिहन्त-सिद्ध बुराई की उत्पत्ति से रहित हैं। वे निर्दोष परमात्मा हैं। आचार्य-उपाध्याय-साधु पूर्णतः बुराई से रहित नहीं हैं। वे निर्दोषता-प्राप्ति के लिए सजग महात्मा हैं। जो अठारह दोष रहित हैं वे हमारे देव हैं। देव में अरिहन्त भी आयेंगे, सिद्ध भी आयेंगे। जो अठारह दोष रहित होने की साधना कर रहे हैं, साधना-मार्ग में आगे बढ़ने के लिए सजग हैं वे गुरु हैं। कर्मोदय के प्रभाव में एक्सीडेंट हो सकता है, रोग आ सकता है, अन्य बाधा आ सकती है। किन्तु वे शुद्धि करके वापस साधना-मार्ग में बढ़ सकते हैं। रोगग्रस्त होने पर डॉक्टर की सेवा ली हो तो प्रायश्चित्त आता है। किसी के पांव में कांटा लग गया, कांटा निकलवाने में श्रावक का सहयोग लिया तो प्रायश्चित्त आता है।
सारे साधु अपेक्षा विशेष से गुरु हैं। उनमें पंच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति एवं दश यति धर्मों का पालन हो रहा है, अतः वे सभी गुरु के रूप में पूज्य हैं। उसी दृष्टि से 'जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो।' वाक्य सार्थक है कि जीवनपर्यन्त सुसाधु मेरे गुरु हैं। महाविदेह के हजार करोड़ साधु, शेष 4 भरत, 5 ऐरवत के साधु परोक्ष रूप से उपकारी हैं, उनकी वंदना स्तुति मात्र हो सकती है। भरत क्षेत्र के सभी साधु वंदनीय नमस्करणीय हैं, उनमें जिनका प्रत्यक्ष सान्निध्य मिले,उनकी सेवा शुश्रूषा, उनको भिक्षा बहराना, व्याख्यान सुनना, ज्ञान सीखना आदि सम्भव होने से वे उपकारी गुरुदेव हो सकते हैं, पर क्रियात्मक रूप से आगे बढ़ने के लिए एक ही गुरु को लेकर चलना पड़ेगा। आज विशेषावश्यकभाष्य पढ़ते समय बहुत सुन्दर विवेचन आया। ‘करेमि भंते! सामाइयं' यानी हे भगवन्! मैं सामायिक करता हूँ। गुरु सामने हों, फिर सम्बोधन में 'भंते' शब्द का प्रयोग किया गया तो ठीक है, पर जब सामने गुरु नहीं हैं तो फिर यह भंते' शब्द निरर्थक है, ऐसी जिज्ञासा वहाँ की गई।
मुनिराजों के सहयोग से विशेषावश्यकभाष्य पढ़ते समय समाधान भी मिला। गुरु के गुण में ज्ञान का उपयोग रखते हुए शिष्य जब 'भंते' बोलता है तो परोक्ष में स्थित गुरु के गुण में उपयोग लगाता है। उस समय भाव से गुरु को, आचार्य को भंते बोलते-बोलते रोम-रोम में आचार्य या गुरु समाहित होता है। ध्यान में लीन हों तो आचार्य-गुरु अन्तर में आ जाय! वह धर्माचार्य-धर्मगुरु एक ही हो सकता है। आप सामायिक की प्रतिज्ञा करते समय ‘करेमि भंते' बोलते हैं, उस समय शिष्य का उपयोग पूरी तरह एक गुरु में लगा हुआ रहेगा। शिष्य के भाव में गुरु के गुण समाये हुए हैं। गुरु के गुण में जिसका ज्ञान
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