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|| 10 जनवरी 2011 जिनवाणी
393 गोच्छक और 19. दण्डक आदि। (प्रश्न व्या. द्वि. श्रुत. अध्य.3 तथा 5 में)। इनमें प्रथम दो वस्तुएँ तो सभी साधु-साध्वियों की पहचान होती हैं, साथ ही स्थावर और त्रसकाय जीवों का संयम भी पलता है। प्रथम महाव्रत के निर्दोष रूप से पालने के साथ समितियों का पालन भी भली प्रकार से होता है।
एषणीय वस्तुएँ और भी हैं, जैसे लिखने-पढ़ने के साधनों में लेखन-सामग्री, पुस्तकें आदि। आवश्यकता पड़ने पर औषधि, कैंची, सूई, धागा, चाकू आदि भी लेने पड़ते हैं। कई उपकरण काम हो जाने पर लौटाने के उद्देश्य से भी लिये जाते हैं, जैसे मकान, पाट, बाजोट, पुस्तकें, सूई, कैंची, चाकू, पराल आदि। इनको उपधि के नाम से जाना जाता है। उपधि दो प्रकार की होती है- (1) औघिक उपधि
और, (2) औपग्रहिक उपधि। इनके नाम व परिचय पूर्व पंक्तियों में वर्णित विषय-सामग्री से स्पष्ट हो जाते हैं। उपकरण (साधन/वस्तु) आवश्यकता के अनुसार लिये व रखे जाते हैं। अधिक रखना स्वयं को परिग्रही बनाना है। कम से कम उपकरण रखने वाले श्रमण लघुभूत होते हैं। उनका चारित्र निर्मल होता है। जितनी कम उपधि होगी, स्वाध्याय की अधिकता और इच्छा की कमी होगी। (उत्तरा.अध्ययन 29 गाथा-34,42) अतः आवश्यकता को सीमित रखकर कम लेना संयम-वृद्धि का कारण एवं अधिक लेना संयम में दूषण है।
उत्तराध्ययन सत्र के अध्ययन 24 की 27 गाथाओं में 27 गुणों से युक्त श्रमण-श्रमणी की पूर्ण साधुचर्या की आधार-शिला अहिंसा और उस अहिंसा को साधने वाली प्रवृत्ति ‘एषणा समिति' का सांगोपांग वर्णन किया गया है। पाँच समितियों में ‘एषणा समिति' का सम्यक् परिपालन संयम-जीवन में चार चाँद लगाता है। साधक की साधना महाव्रतों से सधती है और महाव्रतों का मूलाधार अहिंसा है। अतः महाव्रतों अथवा अहिंसा की सुरक्षा के लिए निर्दिष्ट साधनों में अष्ट प्रवचनमाता महत्त्वपूर्ण साधन है। एषणा समिति भी इस प्रकार अहिंसा एवं संयम की रक्षक है।
-सेवानिवृत्त व्याख्याता, खिड़की दरवाजा, अलीगढ़, जिला-टोंक (राज.)
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