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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
2. प्रक्षित - देते समय हाथ, आहार या भाजन का सचित्त पानी से युक्त होना (दशवै. 5.1.33) 3. निक्षिप्त- सचित्त वस्तु पर रखी हुई अचित्त वस्तु देना (दशवै. 5.1.30)
4. पिहित - सचित्त वस्तु से ढँकी हुई अचित्त वस्तु देना ( उपासक. 1)
5. साहरिय - जिस पात्र में दूषित वस्तु पड़ी हो, उसे अलग कर उसी बरतन से देना (दशवै. 5.1.30)
6. दायग- अशुद्ध व अयोग्य दायक बालक, अंधे, गर्भवती आदि के हाथ से लेना (दशवै. 5.1.40)
7. उन्मिश्र- कुछ कच्चा कुछ पका, सचित्त- अचित्त मिश्रित आहार लेना (दशवै. 3.6 ) 8. अपरिणत - जो पूर्ण रूप से शस्त्र परिणत न हुआ हो, उसे लेना (दशवै. 5.2.23)
9. लिप्त - जिस वस्तु को लेने से हाथ या पात्र में लेप लगे अथवा तुरन्त की लीपी गीली भूमि को लाँघ कर लेना (दशवै. 5.1.21)
10. छर्दित- जिसके छींटे नीचे गिरते हों ऐसी वस्तु को टपकाते हुए देने पर लेना (प्र. व्या. 2.5 ) उपर्युक्त दस दोष टालकर साधु-साध्वी वस्तु को ग्रहण करे। ये दस दोष साधु और गृहस्थ दोनों से
लगते हैं।
(3) परिभोगैषणाः- साधु द्वारा वस्तु का उपभोग करते समय जो दोष लगते हैं उन्हें टालकर आहाराद को ग्रहण करना परिभोगैषणा है। इसका दूसरा नाम 'ग्रासैषणा' भी है। नीचे लिखे पाँच दोष जो साधु से लगते हैं, 'परिभोगेषणा" के दोष हैं:
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1. संयोजना दोष- स्वाद बढ़ाने के लिए एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाना, जैसे दूध में शक्कर ( भग. 7.1 )
2. अप्रमाण दोष- प्रमाण से अधिक भोजन (आहार) करना (भग. 7.1)
3. अंगार दोष - निर्दोष आहार को भी लोलुपता सहित खाना, रस-गृद्ध होना । लोलुपता संयम में आग लगाने वाली होती है । (भग.7.1)
4. धूम दोष- स्वाद रहित, अरुचिकर आहार की या दाता की निंदा करते हुए खाना । (भग. 7.1 ) 5. अकारण दोष- आहार करने के छह कारण उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 26, गाथा 33 में बताये हैं।
उनमें से कोई भी कारण नहीं होने पर भी स्वाद अथवा पुष्टि आदि के लिए आहार (भोजन) करना । ज्ञानादि की आराधना के लिए आहार करना विहित है । लोलुपता या शारीरिक बलवृद्धि हेतु नहीं । (ज्ञाता. 2)
उद्गम के 16, उत्पादन के 16, ग्रहणैषणा के 10, और परिभोगैषणा ( मांडले) के 5 यों कुल 47 दोष हुए । इन सैंतालीस दोषों को टालकर जो शुद्ध आहार करते हैं, वे साधु-साध्वी जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा के आराधक होते हैं।
विशेष- एषणा समिति के सभी मूल भावों एवं विशेषताओं के अनुसार स्तोक रचना कर महापुरुषों ने
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