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________________ 373 || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी आचार पैर है। पक्षी के दो पर अथवा रथ के दो चक्कों की तरह ही जीवन के दो पक्ष हैं- आचार और विचार। शुद्ध आचार की शिक्षा देना आचार्य का कर्तव्य है तो विचार अर्थात् शास्त्रों के गंभीर ज्ञान का रहस्य बताना, भगवद्वाणी का ज्ञान कराना, वाचना देना, आत्मा और अनात्मा या चेतन और जड़ के भेद-विज्ञान की शिक्षा देना उपाध्याय का कार्य है। आचार और विचार के अभिन्न संबंध की तरह आचार्य और उपाध्याय का भी संघ में अभिन्न संबंध है। उपाध्याय को जिन नहीं, परन्तु जिन सरीखे, केवली नहीं परन्तु केवली सरीखे बताया गया है।" 'जिणसकासा' शब्द से यह कथन स्पष्ट होता है। उपाध्याय महाराज सूत्रपाठी बताए गए हैं। नव सूत्रों के पाठक अध्यापक रूप में उनका दायित्व अत्यन्त महिमामय है। सूत्र पाठों की शुद्धता एवं पारम्परिक भाषा के संरक्षक रूप में उनका योगदान रहता है। विशेष- पंच परमेष्ठी में चतुर्थ पद के धारी उपाध्यायजी साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका वर्ग को शास्त्रों का अध्ययन कराते हैं। अतः उनमें अध्यापन के कतिपय गुण होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में उनका अध्यापनकला का ज्ञाता भी होना आवश्यक है। 1. प्राचीन उक्ति है- 'शिक्षा पुत्रान् वै अंतेवासिनः' अर्थात् शिक्षा पुत्रों को अथवा अंतेवासी शिष्यों को देनी चाहिए। अतः शिक्षक के रूप में उपाध्याय जी का व्यवहार शिष्यवर्ग के साथ मधुर-मृदु होना चाहिए। भय और कठोरता से शिष्यवर्ग में भय पैदा होता है और अध्ययन में वे रुचि नहीं लेते। अध्यापक के रूप में उपाध्याय जी को पाठ्यक्रम से अधिक शिक्षार्थी को महत्त्व देना चाहिए। क्योंकि पाठ्यक्रम शिक्षार्थी के लिए है, शिक्षार्थी पाठ्यक्रम के लिए नहीं है। आदर्श अध्यापक के रूप में उपाध्याय से यह अपेक्षित है। 2. प्रत्येक बार के शिक्षण में (वाचनी में ) प्रारम्भ में पिछले दिन के पाठ पर प्रश्न करके आगे का पाठ (वाचनी) का अध्यापन किया जाना अपेक्षित है। इससे शिक्षार्थी साधु-साध्वी आदि पिछला पाठ तैयार करके आयेंगे। वाचनी के बीच-बीच में भी प्रश्न करते रहना आवश्यक है, जिससे शिक्षार्थी साधु-साध्वी एकाग्रता से वाचनी सुनेंगे, अन्यथा वे प्रमादग्रस्त हो सकते हैं। वाचनी के अन्त में पूरी वाचनी एक दिन के कुछ प्रश्न करना आवश्यक है जिससे पूरे पाठ की पुनरावृत्ति हो सके। इससे शिक्षार्थी मुनिवर्ग में जागरूकता रहेगी, वेवाचनी में पूर्ण रुचिलेंगे और नवीन ज्ञान ग्रहण करने में सफल होंगे। 3. जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है। तदनुसार उपाध्याय प्रवर भी अपना अध्ययन जारी रखें। नवीन टीकाओं, वृत्तियों, चूर्णियों का तथा अन्य उपयोगी शास्त्रों का, दर्शनों का अध्ययन करते रहें। 4. आचार-विचार में समन्वय होना आवश्यक है। बिना विचार के आचार की और बिना आचार के विचार की सार्थकता नहीं हो सकती। इसी प्रकार आचार के प्रतिपादक आचार्य और विचार या ज्ञान के प्रतिपादक उपाध्याय महाराज दोनों में समन्वय होना अति आवश्यक है। ‘ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए ज्ञानदाता उपाध्याय और क्रिया या आचार के पालक एवं अन्यों से पालन कराने वाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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