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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || नैमित्तिक- भूत, भविष्य और वर्तमान में होने वाले हानि-लाभ के ज्ञाता होते हैं। तपस्वी- विविध प्रकार के तप करने में कुशल होते हैं। विद्यावान- रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि 14 विद्याओं में निष्णात होते हैं। सिद्ध- अंजन आदि विविध प्रकार की सिद्धियों के ज्ञाता होते हैं। कवि- गद्य-पद्य-कथ्य-गेय चार प्रकार के काव्यों की रचना करने वाले होते हैं।
उपाध्याय जी का यह प्रभावक स्वरूप जहाँ उनकी बहुआयामी विद्वत्ता का द्योतक है, वहीं वह जिनधर्म की प्रभावना का महान् कारण बनता है।
इसके अतिरिक्त उपाध्याय जी को बहुश्रुत की 17 उपमाओं से उपमित किया गया है। ये उपमाएँ हैंशंख, आकीर्ण अश्व, अश्वारूढ़ योद्धा, कुंजर, वृषभ, सिंह, वासुदेव चक्रवर्ती, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, कोष्ठागार, जम्बूवृक्ष, सीतानदी, मन्दरगिरी एवं स्वयंभूरमण समुद्र। कुछ उपमाओं को स्पष्ट किया जा रहा है। शंख-शंख में रखा हुआ दूध न तो विकृत होता है न खट्टा ही और न रिसता ही है। इसी प्रकार बहुश्रुत उपाध्याय में निहित धर्म, श्रुत और कीर्ति तीनों की किसी प्रकार विकृति नहीं होती और निर्मलता बनी रहती है। आकीर्ण अश्व- कम्बोज देश में उत्पन्न अश्व शीलादि गुणों से युक्त जातिमान और वेग में श्रेष्ठ होते हैं। इसी प्रकार बहुश्रुत उपाध्याय मुनियों में श्रेष्ठ होते हैं। अश्वारुढ़योद्धा- जैसे जातिमान अश्वारूढ योद्धा दोनों ओर होने वाले विजयवाद्यों के घोष से सुशोभित होते हैं वैसे ही उपाध्याय भी मुनिवृंद के स्वाध्याय घोष से सुशोभित होते हैं। कुंजर- जैसे 60 वर्ष का उत्तरोत्तर वर्धमान बलवान हाथी प्रतिद्वन्द्वी हाथियों से पराजित नहीं होता इसी प्रकार दीर्घकालिक पर्याय में नाना विद्याओं एवं शास्त्रों के अनुभवरूप बल से औत्पात्तिकी आदि चारों बुद्धियों से परिवृत्त बहुश्रुत उपाध्याय किसी भी प्रतिवादी से पराजित नहीं होते।
विस्तारमय से सभी उपमाओं का वर्णन यहाँ नहीं किया जा रहा है। शेष वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के अध्याय 11 में देखा जा सकता है। उपाध्याय की महिमा
उपाध्याय पद की महिमा इसी से स्पष्ट है कि जहाँ श्रमण के सात पदों का वर्णन हुआ है वहाँ आचार्य के पश्चात् उपाध्याय पद को शीर्ष स्थान दिया गया है। जहाँ आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक तीन पदों की चर्चा हुई है वहाँ भी आचार्य के बाद और गणावच्छदेक के पूर्व उपाध्याय पद को प्रतिष्ठित किया गया है।
संघ में एकाधिक संघाटक हों तथा जिनमें बालसंत हो, युवा हों, नवदीक्षित हों वहाँ आचार्य के साथ उपाध्याय का होना आवश्यक बताया गया है। इससे आचार्य के साथ-साथ उपाध्याय पद की महिमा सुस्पष्ट होती है।
जैसे धर्मरूप शरीर की एक आँख आचार है तो दूसरी आँख विचार है अथवा विचार आँख है तो
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