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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 बुद्धियों से आचार्य सम्पन्न होते हैं। 7. पओगसंपया (प्रयोगमति-संपदा)- पक्ष-प्रतिपक्ष युक्त शास्त्रार्थ के समय वाद प्रवीणता, बुद्धि
कुशलता होनी चाहिए। 8. संगहपरिण्णा-संपया (संग्रहपरिज्ञा-संपदा)- आचार्य संघ-व्यवस्था में निपुण हो। अध्ययन,
विनय, विचरण, समाचारी को सुव्यवस्थित रखे। अगीतार्थ साधु के कवच आचार्य
___ व्यवहारसूत्र के उद्देशक 6 में अगीतार्थ साधु के अकेले रहने का निषेध किया गया है। उसे आचार्य के चरणों में रहना चाहिए।
____ आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 5 के चतुर्थ उद्देशक में अव्यक्त साधु के द्वारा आचार्य में एक मात्र दृष्टि रखने, उनके द्वारा प्ररूपित मुक्ति में मुक्ति मानने और उनके सान्निध्य में रहने का संकेत किया गया है। ‘एयं कुसलस्स दंसणं' यह कुशल महावीर का दर्शन है। आचारांग टीका में
जहा दिया पोयमपक्खजायं सवासया पविउमणं मणागं।
तम चाइया तरुण पत्तजाय ढंकादि अव्वत्तगम हरेज्जा।। जैसे नवजात पक्षरहित पक्षी को ढंकादि पक्षियों से भय रहता है। वैसे ही अव्यक्त अगीतार्थ को अन्यतीर्थिकों का भय बना रहता है। ऐसे भय समय में आचार्य ही अगीतार्थ के रक्षा कवच होते हैं। विनय प्रदाता आचार्य दशाश्रुत स्कन्ध- की चौथी दशा में आचार्य शिष्य को चार प्रकार का विनय सिखाते हैं। 1. आयार-विणएणं (आचारविनय)- वे महाव्रत, समिति-गुप्ति, विधि-निषेध, तप, समाचारी एवं
एकाकी विहार का ज्ञान कराते हैं। शिष्यों को व्यवहार का विनय सिखाते हैं। 2. सुय-विणएणं (श्रुतविनय)- शिष्यों को बहुश्रुत बनाने के लिए सूत्रार्थ की समुचित वाचना देते
3. विक्खेवणा-विणएणं (विक्षेपणाविनय)- यथार्थ संयमधर्म एवं उसमें स्थिर रहना सिखाते हैं। 4. दोस-निग्घायण विणएणं (दोष निर्घातना विनय)- शिष्य समुदाय में उत्पन्न दोषों को दूर करते
तिन्नाणं तारयाणं आचार्य महाराज
पंचम काल में आचार्य महाराज स्वयं संसार सागर से तिरते हैं तथा दूसरों को तिराते हैं। आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्ध के पंचम अध्ययन के पंचम उद्देशक में सूत्र 166 में आचार्य महिमा का वर्णन है। शास्त्रकार कहते हैं, “जैसे एक जलाशय/ हृद जो जल, कमल से परिपूर्ण अनेक जलचर जीवों का संरक्षक होता है इसी प्रकार आचार्य की महिमा है।" व्याख्या में आचार्य को सीता और
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