SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 343 पाता । श्रावक-श्राविकाओं के व्रत सोने के समान होते हैं। सोना एक ग्राम हो या सौ ग्राम, सबकी कीमत वजन के हिसाब से होती है अर्थात् श्रावक जितने-जितने व्रत धारण करता है उसकी कर्म-निर्जरा उसी अनुसार होती है। साधु-साध्वियों को उनके साधक जीवन में टालने योग्य जो अनाचार बताए गए हैं, उनमें कई का त्याग हम अपने जीवन में पूर्ण रूप से अथवा मर्यादा के साथ कर सकते हैं, जैसे 1. - साधुओं के लिए रात्रि भोजन निषेध बताया गया है। यह त्याग श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी आवश्यक है। एक सच्चे जैनी का लक्षण ही रात्रि भोजन त्याग बताया गया है। यह हमारी पहचान है। साधक के लिए स्नान को भी अनाचीर्ण कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में भी कहा गया है कि रोगी हो अथवा नीरोगी, जो भी साधक स्नान की इच्छा करता है वह आचार से फिसल जाता है और उसका जीवन संयमहीन हो जाता है। हिंसा के साथ स्नान, विभूषा का कारण होने से भी साधक के लिए वर्जनीय कहा गया है। यथासंभव हम भी स्नान का त्याग कर सकते हैं। बड़ी स्नान का पूर्ण त्याग किया जा सकता है, सप्ताह में दिनों की मर्यादा करके भी स्नान का त्याग किया जा सकता है। 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ और फूल माला का सेवन साधु के लिए निषिद्ध है। इससे वनस्पतिकाय जीवों की विराधना होती है। श्रावक-श्राविकाएँ भी इनका पूर्ण रूप से अथवा मर्यादा के साथ त्यागकर जीवों की विराधना से बच सकते हैं। तैल आदि से बिना कारण शरीर का मर्दन करना संवाहन कहा जाता है। साधु-साध्वी तो देहासक्ति से बचने के लिए इससे दूर रहते हैं। बिना कारण तो अधिकतर श्रावक-श्राविकाएं भी इसका उपयोग नहीं करते हैं, अतः मर्यादा के साथ इसका त्याग करना भी श्रेयस्कर है। अपने अंग- उपांग की सुन्दरता के लिए दूसरे से पूछना अथवा आरम्भ समारम्भ सम्बन्धी अनावश्यक प्रश्न पूछना साधुओं के लिए तो निषिद्ध है ही, श्रावकों को भी यथासंभव आरम्भ-समारम्भ से बचना चाहिए। जुआ, शतरंज आदि खेल जिनमें हार-जीत का दांव लगाया जाता है, उससे कर्मबंधन होता है। सप्तकुव्यसन में भी इन्हें गिना जाता है, अतः प्रत्येक जैन श्रावक-श्राविका का कर्त्तव्य है कि वह इसका अवश्य त्याग करे। जैन श्रमण तो परीषह सहने और हिंसा से बचने के लिए जूते-चप्पल एवं पादुका का भी उपयोग नहीं करते । हमसे भी जितना हो सके इनका त्याग अवश्य करना चाहिए। ज्यादा नहीं तो कम से कम पर्युषण के आठ दिनों में तो अवश्य ही जूते-चप्पल का त्याग अपेक्षित है । सचित्त कन्द-मूल का लेना भी साधु के लिए अग्राह्य है। जैन धर्म के गये हैं, उन जीवों की हिंसा से बचने के लिए प्रत्येक जैन Jain Educationa International अनुसार जमीकन्द में असंख्य जीव 'जमीकन्द का त्याग करना आवश्यक For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy