________________
| 10 जनवरी 2011 जिनवाणी
30 क्योंकि धर्म कल्याणकारी है अथवा पापकारी, इसे भी मैं साक्षात् (प्रत्यक्ष रूप से) नहीं जानता। (ii) तप और उपधान (ज्ञानाराधन के व्रत) को स्वीकार करने पर तथा विशिष्ट प्रतिमाओं का पालन
करने पर इस प्रकार विशिष्ट चर्या से विहरण करने पर भी मेरा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का आवरण दूर नहीं होता।
अपने तप, उपधान तप, प्रतिमा धारण तथा विशिष्ट साधना की फल विषयक आकांक्षा के विषय में साधु आतुरता-पूर्वक गलत चिन्तन करने लग जाता है। वह ऐसे सोचने लगता है कि यदि विरति से कोई अर्थ सिद्ध होता तो मेरा अज्ञान सर्वथा मिट जाता।
इस प्रकार भ्रान्त चिन्तन ही अज्ञान-परीषह है। इस प्रकार के गलत चिन्तन से मुक्त होना ही अज्ञान परीषह-विजय है। कथाः- अज्ञान-परीषह के विषय में आभीर साधु की कथा जान लेनी चाहिए। (22) दर्शन परीषहः(1) निश्चय ही परलोक नहीं है अथवा तपस्वियों की तपोलब्धि भी नहीं है अथवा मैं धर्म के नाम पर
ठगा गया हूँ। इस प्रकार साधु विचार न करे। (I) पूर्वकाल में जिन हुए थे, वर्तमान में जिन हैं अथवा भविष्य में भी होंगे, ऐसा जो कहते हैं वे
मिथ्या बोलते हैं, साधु इस प्रकार चिन्तन न करे।
दर्शन परीषह होता है तब व्यक्ति की दृष्टि, रुचि, श्रद्धा विपरीत हो जाती है। वह परलोक, पुनर्जन्म, आत्मा, धर्म, पुण्य, पाप, स्वर्ग-नरक, तप-जप, ध्यान आदि को नहीं मानता। तत्त्वों में उसकी अतत्त्व बुद्धि हो जाती है। वही दर्शन परीषह है। इस परीषह पर विजय पाने के लिए मिथ्यादृष्टि से तुरन्त हटकर सम्यग्दर्शन में अपने मन को स्थिर करना चाहिए। ' कथाः- दर्शन परीषह पर आर्य आषाढ़ सूरि की कथा जान लेनी चाहिए। उपसंहार :- परीषहों के साथ संग्राम में साधु हार न माने।
शास्त्रकार ने कहा है कि भगवान महावीर स्वामी ने स्वयं अनुभव करके 22 परीषहों का भलीभाँति निरूपण किया है कि निर्ग्रन्थ साधुओं को कहीं भी, किसी भी चर्या में प्रवृत्त होते समय इनमें से कोई भी परीषह उपस्थित हो जाए तो घबराना नहीं चाहिए, न ही अपनी साधु-मर्यादा भंग करके पतन मार्ग को अपनाना चाहिए, अपितु उनके सामने डटे रहकर, समभाव से उन्हें सहन करना चाहिए तथा उन्हें पराजित करके स्वयं परीषह-विजयी बनना चाहिए।
-स्वाध्यायी, जैन धर्म भूषण, पटेल चौक, भिस्तियों का बास, जोधपुर-342001(राज.)
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org