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10 जनवरी 2011 जिनवाणी .34
जीवन के कलाकार : सद्गुरु
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.सा.
सद्गुरु हमारे जीवन के प्रकाश-स्तम्भ हैं । वे सच्चे मार्गदर्शक एवं कुशल नाविक हैं। पापियों के जीवन को भी वे उज्ज्वल एवं निर्मल बनाने में सक्षम हैं। सद्गुरु का मिलना सौभाग्य का सूचक है। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी की प्रभावपूर्ण शैली में निबद्ध यह प्रवचनात्मक आलेख सद्गुरु के महत्त्व का कुशलतापूर्वक निरूपण करता है। -सम्पादक
एक यात्री
रात्रि का समय है। अन्धकार से भूमण्डल व्याप्त है। नेत्र सम्पूर्ण शक्ति लगाकर के भी देख नहीं पा रहे हैं। सुनसान जंगल है। एक यात्री उस घनान्धकार में चल रहा है, किन्तु तिमिर की अत्यधिकता के कारण मार्ग दिखलाई नहीं दे रहा है। उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं, वह दो कदम आगे बढ़ता है और दस कदम पुनः पीछे खिसकता है। वह कभी चट्टान से टकराता है और कभी गर्त में गिर पड़ता है। वह कभी नुकीले तीक्ष्ण काँटों से बींधा जाता है तो कभी कोमल-कुसुमों के स्पर्श से नागराज की कल्पना कर भयभीत होता है। कभी उसे अज्ञात पशु और पक्षियों की विचित्र ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। भय की भीषणता से उसका हृदय काँप रहा है, बुद्धि चकरा रही है तथा मन विकल और विह्वल है। वह सोच नहीं पा रहा है कि मुझे किधर चलना है और मेरा गन्तव्य मार्ग किधर है? ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति हाथ में सर्चलाइट लेकर आये और उस पथिक से कहे- घबराओ नहीं, भय से काँपो नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे अभीष्ट स्थान पर पहुंचा देता हूँ। चलो, इस चमचमाते हुए दिव्य प्रकाश में, तो बताइये! उस पथिक के अन्तर्मानस में प्रसन्नता की कितनी लहरें होंगी? उस समय वह कितना प्रसन्न होगा? कौन बतावे वाट
हम और आप भी यात्री हैं। आज से नहीं, अपितु अनन्त-अनन्त काल से यात्रा कर रहे हैं, संसार रूपी भयानक जंगल में । अज्ञान का गहरा अन्धकार छाया हुआ है जिससे सही मार्ग दिखलाई नहीं दे रहा है। कभी हम स्वर्ग की चट्टान से टकराये हैं और कभी हम नरक के महागर्त में गिरे हैं, कभी तिर्यंच के काँटों से बिंधे हैं और कभी मानव-जीवनरूपी फूलों का भी स्पर्श हुआ है, कभी क्रोध-मान-माया और लोभ-रूपी पशुओं ने हम में भय का संचार किया है। हमारी स्थिति भी उस पथिक की तरह डांवाडोल है। उस समय सद्गुरु ज्ञानरूपी सर्चलाइट लेकर आते हैं और शिष्य को कहते हैं कि घबराओ नहीं, मैं तुम्हें सही मार्ग बताता हूँ, ज्ञान के निर्मल प्रकाश में चले चलो, बढ़े चलो अपने लक्ष्य की ओर । उस समय साधक का हृदय भी आनन्द विभोर होकर गा
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