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________________ 332 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 विवेक के सूत्र लेखन कार्य को अपने-अपने विवेक द्वारा सत्साहित्य के सृजन के लिए सीमित रखने का प्रयत्न किया जाता है। “पण्णा सम्मिक्खयाए” का सहारा लेकर, देवर्धिगणी के जमाने के अपवाद को अब प्रासंगिकता का जामा पहना दिया जाता है। इसी व्यामोह में अपने विवेक की सीमाएँ आगे बढ़ा कर, उस लेखन को मशीनों से छपवाने को भी अपवाद नहीं समझा जाता है। हो सकता है कि कुछ श्रमण इस क्रिया के लगने पर प्रायश्चित्त कर लेते हैं। कुछ श्रमण अभी भी लेखन को छपवाना बाधित रखते हैं। अन्यों का तर्क रहता है ‘कम हिंसा, ज्यादा जिनवाणी रक्षा"। इसी तर्क के सहारे अब 18वीं शताब्दी की छपाई की मशीनों से आगे बढ़ते हुए, 21 वीं शताब्दी में कम्प्यूटर और प्रिंटर का उपयोग करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। हालांकि इनका उपयोग आज श्रमण आज्ञा लेकर भी स्वयं नहीं करते हैं, लेकिन हो सकता है कि भविष्य में इनके तथा मोबाइल के उपयोग में खुद को लगा लें। इसके लिए विद्युतकाय के जीवों को जीव नहीं मानने का प्रयास जारी है। लेकिन एक अपरिग्रही श्रमण को विवेकपूर्वक विचार करना है कि 'आचारांग' की व्यवस्था में छूट की सीमा कहाँ निर्धारित करें? समझदारों को अपनी अहिंसक और करुणामय भावना से सोचना है। प्रश्न यह है कि यह काम एक अणुव्रतधारी गृहस्थ करे या यह एक महाव्रतधारी श्रमण? क्या साधु ही ज्ञान का ठेका लेकर प्रचार-प्रसार करे या अणुव्रत धारी भी ज्ञानी बनकर अपनी मर्यादा में रहते हुए, आधुनिक संचार- व्यवस्था का सदुपयोग करे? श्रमणाचार की सम्यक् साधना की ठोस सीमाओं के कारण, जिम्मा निश्चय ही एक श्रमण का नहीं हो सकता है। बिजली का उपयोग अपने व्याख्यान की पहुँच बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ श्रमण लोग ध्वनिवर्धक यंत्र और दूरदर्शन का उपयोग करना प्रासंगिक मानते हैं। तेजस्कायिक जीवों की हिंसा से परहेज करने की मानसिकता ही समाप्त हो गई है। यहाँ तक कि कुछ अधपक्के तर्कों द्वारा वे यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि विद्युत कायिक जीवों का अस्तित्व ही नहीं होता है। विद्युत तो एक भौतिक ऊर्जा मात्र है। टी.वी. के माध्यम से उनके प्रवचन, जैन धर्म के संदेश आज विश्व के कोने-कोने में जा रहे हैं। इस तरह वे धर्म प्रसार व प्रचार की महान सेवा कर रहे हैं। इसके विपरीत कुछ श्रमण वर्ग विद्युत कायिक जीवों की करुणा पूर्वक रक्षा करने के मुद्दे को अपने आचार का मुख्य विषय मानते हैं। टी.वी. द्वारा पर-कल्याण के उपदेश का प्रसार, उनके लिए गौण मुद्दा है। वे स्व कल्याण को ही मुख्य मानते हैं। आज की सुविधा के अनुसार, इस प्रकार जीव हिंसा को गौण कर देना विवेकशून्य और अप्रासंगिक है। हिंसा और अहिंसा का मुद्दा, आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोग में अपनी कितनी प्रासंगिकता रखता है, यह स्व-पर कल्याण के मुद्दे से तो जुड़ा ही है, साथ में श्रमण विशेष की करुणा के भाव से भी जुड़ा हुआ होना चाहिए। यदि फायदे-नुकसान का विश्लेषण करना ही है, तो विवेक का तकाजा है कि इसे अणुव्रतधारियों के दायरे में रखा जाय, न कि महाव्रतधारियों के दायरे में। क्योंकि अहिंसा महाव्रत के मुद्दे को आयतुले पयासु' की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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