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10 जनवरी 2011
पदयात्रा और उसकी महत्ता
यह श्रमणाचार का एक मुख्य नियम है। श्रमणलोग पद विहारी होते हैं और वाहनों का उपयोग नहीं कर सकते । यहाँ तक कि साधारणतया दूसरों द्वारा चालित साइकिल रिक्शा का भी। उन्हें तो पदयात्रा द्वारा गाँव से गाँव विचरण करते रहना है। ये यात्राएँ भी ईर्या समिति की साधना के तहत होती हैं। यानी यात्राएँ भी यतना पूर्वक करनी हैं। इन यात्राओं से एक श्रमण जमीन से जुड़ा रहता है ।
दूर-दूर जाकर या विदेशों में जाकर धर्म प्रचार का लोभ संवरण न कर सकने के कारण, उन्हें हिंसा आदि का दोष लगता ही है। उनका अहिंसा महाव्रत स्खलित होता है। वाहन का उपयोग अपवाद स्वरूप, पूर्व भी जरूर हुआ है, लेकिन उन श्रमणों ने इसका प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि भी की है। यानी वाहनों का धडल्ले से उपयोग करना श्रमणाचार के विरुद्ध है ।
जिनवाणी
जिन श्रमणों ने इस नियम को ताक पर रखकर, धर्म प्रचार व प्रसार को प्राथमिकता दी है, उनका महाव्रत तो स्खलित हुआ ही है। उनका तर्क कि विदेशों में धर्म-प्रभावना या धर्म प्रचार में व्यापकता लाकर, उस पाप कर्म को पुण्य अर्जन से संतुलित कर दिया है, तो उन्हें अपने भावों में उन एकेन्द्रिय जीवों के प्रति सूखे हुए करुणा स्रोत पर भी नज़र डालनी चाहिए। वे उन जीवों के रक्षक बनकर क्यों भक्षक बन गये ? हिंसा तो हिंसा ही है। यदि कोई श्रमण अपने महाव्रत में स्खलित होता है, तो वह उस श्रावक से पूज्य नहीं हो सकता जो एक छोटा अणुव्रत लेकर भी उसका दृढ़ता से पालन करता है ।
यह भी ध्यान देने की बात है कि प्रायश्चित्त द्वारा केवल अपवाद स्वरूप स्खलना की विशुद्धि होती है। अपवाद तो अपवाद ही रहने चाहिए। श्रमण का मूल उद्देश्य तो स्व कल्याण है। पर कल्याण तो गौण उद्देश्य है। उद्देश्यपूर्ति के लिए श्रमणाचार के नियम बनाये गये हैं। अपवाद की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।
कई श्रमणों ने अन्य तर्क परोसकर, वाहन प्रयोग को प्रासंगिक सिद्ध करने की कोशिश की है, जो अनुचित है।
लेखन और संचार व्यवस्था
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कहते हैं कि क्षमाश्रमण देवर्धिगणी ने हस्त लेखन द्वारा जो आगमों को पहली बार लिपिबद्ध कराया, तो इस क्रिया को अपवाद मानकर प्रायश्चित्त लिया गया था। उन्होंने जब देखा कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के प्रभाव से स्मरण शक्ति कमजोर होती जा रही है, तो जिनवाणी को सुरक्षित रखने के लिए उसे सही रूप में लिपिबद्ध कराया। उसमें हुए हिंसा - दोष को प्रायश्चित्त लेकर धो डाला। लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं । अब प्रायः हर साधु लेखन का कार्य करता है। कुछ अपने संघ की (साधु-संघ) व्यवस्था के लिए, तो कुछ उससे आगे बढ़कर लेखन का, किताबें लिखने का कार्य भी करते हैं। हो सकता है कि किसी पक्ष को आवश्यक मानकर, विवेकपूर्वक न्यूनतम दर्जेपर रहते हुए वे उस कार्य को कर रहे हों। डायरियाँ रखते हैं, अपने लिखने के लिए। स्मृति को सहारा देने के लिए। अब हस्तलेखन सम्बन्धी देवर्धिगणिजी जैसा अपवाद, अपवाद ही नहीं रहा। वह तो चर्या बन गया है ।
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