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| 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी ]
315 हमें प्राप्त है वैसी संसार के अन्य जीवों को उपलब्ध नहीं है। अतः हम पूर्ण विवेक रखते हुए, मर्यादित, संयमित व धर्मयुक्त भाषा का प्रयोग करें। वाणी के अविवेक से कई समस्याएँ खड़ी होती हैं। अतः हम जो भी बोलें, बहुत सोच समझकर व मधुर बोलें। कटु, व्यंगपूर्ण व किसी के गुप्त रहस्यों को उद्घाटित करने वाले वचन कभी न बोलें। ऐसा सत्य भी न बोलें जिससे किसी की आत्मा में क्लेश पैदा हो। अनावश्यक शब्दों को बोलकर अपनी शक्ति को खर्च न करें। सामने वाला अनुचित भी बोलता है तब भी हम अपना संयम बनाये रखें। कौन व्यक्ति सज्जन व कौन दुर्जन है, इसकी पहचान वाणी से ही होती है। यदि कोई दुर्व्यवहार करता है, गलत भाषा का प्रयोग करता है तो भी हम सहिष्णु बनकर विवेक रखकर सहन करना सीखें।
___यह जिह्वा बड़ी चटोरी है, खाने को मीठा मांगती है पर बोलती कड़वा है। आज मनुष्य की वाणी कड़वी व कठोर बनती जा रही है इसीलिये जीवन में पापों का अंतहीन सिलसिला जारी है। ऐसा लगता है मनुष्य मीठा बोलना ही भूल गया है। उसकी वाणी से तीखे बाण की तरह शब्द निकलेंगे तो फिर जीवन में महाभारत होना सुनिश्चित है। कटुवाणी क्लेश एवं दुःख का कारण बनती है। पांचों इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय बड़ी खतरनाक है। यह होती तो चार अंगुल की है, लेकिन इस पर नियन्त्रण नहीं रखते हैं तो यह छः फुट के आदमी को मार गिराती है। इसके दो बड़े काम हैं- चखना व बकना। बोलना खराब नहीं है पर बकना अपराध है। वाणी वह खट्टा पदार्थ है जो मैत्री के दूध को फाड़ देती है। वाणी वह चुम्बक है जो मनुष्य के प्रति आकर्षण पैदा करती है। वाणी वंह एक्सरे मशीन है जो अन्तरंग का फोटो निकाल कर सामने रख देती है। वाणी में इतनी शक्ति है कि बिगड़े हुए काम को सुधार भी सकती है एवं बनते हुए कार्य को बिगाड़ भी देती है।
मन के भावों को प्रकट करने का साधन वाणी है। इसी से पता चलता है कि मनुष्य का हृदय कितना स्वच्छ व पवित्र है। वाणी से ही व्यक्तित्व की पहचान होती है। हमारा सारा व्यवहार वाणी के आधार पर चलता है। वाणी के द्वारा ही पारस्परिक संबंधों में अमृत उंडेला जा सकता है। यही वाणी गहरे घाव भी कर सकती है। इस वाणी की कटुता ने एक घर को नहीं, अनेक घरों को उजाड़ा है। यह वाणी एक ओर द्वेष के कांटे बिखेरती है तो यही वाणी मधुर वचनों के पुष्प व सौरभ भी फैलाती है। अतः हम पूर्ण उपयोग रखकर हितकारी वचन बोलें। हम अपने वचनों का दुरुपयोग न करें। सोचें इन वचनों के माध्यम से हमने कितनी जिन्दगियाँ बर्बाद की। कितने जीवन में आग लगा दी, कितनों की घात करवा दी। हमारी यह जुबान आग की लपटें न बन जायें। हमारे मुंह से आग के शोले न उगलें। हम सदैव अपने वचनों को संवारने व मधुर बनाने की कोशिश करें। नहीं बोलना आये तो मौन रखें। जहाँ हमारी भाषा शिष्ट होनी चाहिए वहाँ हमने क्लिष्ट बना ली। सोचें जिन वचनों से हमने दूसरों के हृदय में दावानल सुलगाया है, घाव बनाया है वह कैसे मिटेगा। वचन के घाव जल्दी नहीं भरते, बहुत दुःख-दर्द वपीड़ा देकर तड़फाते हैं।
जो मीठा बोलता है उसके प्रति हर किसी के मन में प्रेम उमड़ता है। प्रेम मांगने से नहीं मिलता, बांटने व देने से मिलता है। यदि हम सबसे प्रेम करते हैं, सबकी तन-मन से सेवा करते हैं। सबके प्रति सहयोग व
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