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जिनवाणी 10 जनवरी 2011 कर्मबन्धनों को तोड़कर सब दुःखों से हमें हमेशा के लिये मुक्त कर देता है। कर्मों की निर्जरा के लिये मनोगुप्ति आवश्यक है। मन को वश में करना सबसे कठिन कार्य है। मन घोड़े से भी अधिक तेज दौड़ता है। यह मन बन्दर से भी अधिक चपल है। मछली से अधिक चिकना है। आकाश-पाताल की सैर करने में समर्थ है। मन की एक आदत होती है इसे रोको तो यह अधिक भागता है, पकड़ो तो दौड़ता है, मनाओ तो ज्यादा मचलता है। भगवान कहते हैं कि मन को मनाने की नहीं, साधने की जरूरत है। क्योंकि नियन्त्रित मन ही आत्मा का हितैषी है। अतः इस चंचल मन को कैसे एकाग्र व स्थिर करें इसके लिए ज्ञानी कहते हैं
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पदार्थोंकी नश्वरता का बोध करें। संसार के सभी पदार्थ नश्वर हैं जिनको पाने के लिये हम अपनी पूरी शक्ति व समय को बर्बाद कर रहे हैं। वे रहने वाले नहीं हैं। मेरे सामने ही देखते-देखते नष्ट हो सकते हैं, अतः पदार्थों से मन का आकर्षण मिटाकर उसे एकाग्र एवं स्थिर करें ।
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भगवान के मार्ग एवं भगवान के वचनों पर हम दृढ़ श्रद्धा करें। भगवान ने जो कुछ कहा है वही सत्य है। उसी में हमारा हित है। हमारा सुख-दुःख, बंधन और मोक्ष मन के ही अधीन है। पुण्य व पाप के बीज मन रूपी धरती में ही बोये जाते हैं। स्वच्छ व पवित्र मन मानव की सबसे बड़ी संपदा है। अनादि काल से हम मोह-अज्ञान, प्रमाद एवं मिथ्यात्व रूपी मादक द्रव्य का सेवन कर मन के मालिक बनने के स्थान पर मन
गुलाम बने हुए हैं। यदि यह मोह व अज्ञान का नशा उतर जाये तो आत्मा परमात्मा बन सकता है। हमारी साधना का मूल लक्ष्य मन के विकारों पर विजय पाना, कामनाओं, वासनाओं व संकल्पविकल्प रूप सर्व इच्छाओं से मुक्त होना है।
आत्मा की शाश्वतता का दृढ़ विश्वास- मेरी आत्मा शाश्वत है। वह पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। वह कभी मरती नहीं, गलती नहीं, सड़ती नहीं । चाहे कितने ही दुःख पीड़ाएँ - जायें आत्मा का एक प्रदेश भी नष्ट नहीं होता।
-कष्ट आ
मृत्यु का सतत स्मरण - मृत्यु एक अनिवार्य सत्य है । जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। जो अपनी मृत्यु को भूल जाता है वही पाप प्रवृत्तियों में लिप्त बन कर जीवन जीता है। यह महल, मकान, धन-दौलत, जमीन-जायदाद सब ज्यों के त्यों पड़े रहते हैं, हमारे साथ अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्म ही जाते हैं। मौत को टाला नहीं जा सकता, पर हाँ सुधारा अवश्य जा सकता है। ज्ञानी कहते हैं कि मृत्यु आये उसके पहले हम अपनी सोई हुई आत्मा को जगा लें। हमारे मन में मंदिर जैसी पवित्रता व जीवन में चन्दन जैसी महक होनी चाहिये। मन की पवित्रता ही मुक्ति का द्वार खोलती है।
प्रश्न:- वचन गुप्ति से क्या होता है ?
उत्तर:- वचन गुप्ति से जीव निर्विकार भाव को प्राप्त करता है। विकथाओं से मुक्त होता है। अशुभ वचनों का
निरोध होता है, जिससे शुभ वचनों में प्रवृत्ति होती है।
मनुष्य के पास वाणी की शक्ति बड़ी महत्त्वपूर्ण शक्ति है। वाणी की अभिव्यक्ति की क्षमता जिस तरह
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