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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी विसतिणि सवाय वंजुल कणिया रूप्पल समेण समणेणं । भमरूं दुरु नड कुक्कुड अदाग समेण होयव्वं ॥ 1. सांप की उपमा - सांप जिस तरह चूहे आदि के द्वारा खोदे गए बिलों में रहता है एवं एक दृष्टि रखकर चलता है उसी प्रकार साधु दूसरों के द्वारा बनाए गए घर में रहता है और राग-द्वेष से कर्म बंधन होता है इसका ध्यान रखकर सम्यक् दृष्टि से चलता है। अतः श्रमण को उरग (सांप) की उपमा दी गई है। 2. गिरि - परीषह आदि की पवन को सहन करने में श्रमण गिरि के समान निष्कम्प होता है। 3. अग्नि- अग्नि में जैसे सूखी घास कितनी भी डाली जाए तब भी उसकी तृष्णा समाप्त नहीं होती है। वैसे ही श्रमण सूत्रज्ञान और अर्थ ज्ञान का सदा पिपासु होता है। अग्नि को कुछ भी दिया जाए अर्थात् उसमें डाला जाए तो वह सभी को ग्रहण कर लेती है उसी तरह साधु को अशनादि में स्वादिष्ट अस्वादिष्ट जो भी मिलता है वह बिना राग-द्वेष उसे ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार अग्नि की उपमा श्रमण में घटित होती है। 4. सागर - श्रमण ज्ञानादि रत्नों से सागर के तुल्य गम्भीर होता है और उसी की तरह अपनी मर्यादा का उल्लघंन नहीं करता है। 5. आकाश- आकाश को जिस प्रकार किसी अवलम्बन की आवश्यकता नहीं होती है उसी तरह श्रमण निरालम्बी है। 6. वृक्ष - वृक्ष चाहे बांस का हो अथवा चन्दन का सभी वृक्ष पक्षियों के आश्रय स्थल होते हैं और सभी फूल होते हैं ठीक वैसे ही श्रमण मोक्षार्थी होता है और प्राणिमात्र का आश्रय रूप एवं शत्रु-मित्र में समान भाव वाला होता है। अतः श्रमण वृक्ष समान है। 7. भ्रमर - एक जगह से ही रस पान न करने वाले भ्रमर की वृत्ति के तुल्य श्रमण भिक्षा ग्रहण नहीं करता है । इसलिए उसे भ्रमर की उपमा से उपमित किया गया है। 297 8. मृग - मृग संसार में सदा शत्रु से डरता है उसी तरह श्रमण संसार के प्रपञ्चों से डरता हुआ रहता है, अतः मृग की उपमा घटित होती है। Jain Educationa International एक ही स्थान 9. पृथिवी - सभी के भार को वहन करने वाली इस धरती (पृथिवी) के समान श्रमण भी परीषहों को सहन करता है। अतः उसे पृथिवी की उपमा दी गई है। 10. कमल - जिस प्रकार कमल कीचड़ और पानी से ऊँचा उठा होता है और उनसे संश्लिष्ट भी नहीं रहता है उसी प्रकार श्रमण काम भोग के उत्पन्न होने पर उनसे दूरी बनाए रखता है । 11. सूर्य - धर्मास्तिकाय आदि लोक का स्वरूप श्रमण अपने ज्ञान प्रकाश से बताता है, अतः प्रकाशमान होने से इसमें सूर्य की उपमा घटित होती है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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