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| 10 जनवरी 2011 ॥
जिनवाणी का सर्वाधिक अंदेशा है उन स्थानों पर अनुशासन के लिए ये विशेष सूचना और व्यवस्थाएँ दी गई हैं।
साधु-साध्वी जी जहाँ अपने गुरु-गुरुणी के साथ रहते हैं उस उपाश्रय अथवा स्थानक से कहीं बाहर जाना और आना कई बार मनमाना हो जाता है। जब मन हुआ स्थानक से कहीं निकल गये, जब मन हुआ आगये। अनेक बार यह स्वतन्त्रता, स्वच्छंदता पनप जाती है। गुरु समझते हैं शिष्य अपने स्थानक पर ही होगा और जब देखते हैं तो शिष्य का कोई अता-पता ही नहीं मिलता तो यह साधक जीवन में अव्यावहारिक और विडम्बना जैसा हो जाता है। इस विडम्बना को समाप्त करने के लिए आवस्सहि' और 'निस्सहि' रूप समाचारी के निर्देश हैं। इसका अर्थ है स्थानक से बाहर जाने के पहले गुरु से आज्ञा लें और आकर भी गुरु को अवगत कराएं कि मैं आगया हूँ।
शिष्य-शिष्याएँ अनेक बार गुरु-गुरुणी को पूछे बिना ही कोई निर्णय ले लेते हैं, इसमें गुरु की अवहेलना तो स्पष्ट ही है, गुत्थी कभी-कभी ऐसी उलझ जाती है कि शिष्य का निर्णय और गुरु का निर्णय मेल नहीं खाता है तो परस्पर वैमनस्य की स्थिति भी बन सकती है, ऐसी विसंगति गुरु-शिष्य के मध्य उपस्थित न हो, इसके लिए 'आपुच्छणा, पडिपुच्छणा' का विधान दिया है। प्रत्येक निर्णय गुरु को पूछकर करना उसमें भी कोई अवान्तर स्पष्टता करना हो तो गुरु को पुनः पुनः पूछ लेना भी आवश्यक है।
अनेक बार गुरु स्पष्ट रूप से कोई बात कहे यह सम्भव नहीं होता। सुयोग्य शिष्य गुरु की भावनाओं को समझकर तदनुरूप व्यवहार करता है, अपनी स्वच्छन्दता को एक तरफ रखकर गुरु की भावानुसार वरतना यह 'छन्दणा' नामक समाचारी है। यह एक मनोवैज्ञानिक समाचारी है। सुयोग्य चतुर शिष्य ही इस समाचारी की विधिवत् आराधना कर सकता है। इसी तरह एक समाचारी है 'इच्छाकार' । गुरु से निवेदन कर पूछा जाये कि आपकी इच्छा क्या है। मेरी इच्छा का कोई महत्त्व नहीं, आपकी इच्छा ही सर्वोपरि है।
एक समाचारी है'मिच्छाकार', यह विनम्रता और आत्म-शुद्धि की समाचारी है। अपने आहार-विहार आदि व्यवहारों में जहाँ कहीं भी स्खलना हो जाये, गुरु के समक्ष उन्हें उपस्थित कर उनका परिमार्जन करना। श्रमणधर्म के अनुपालन में यह समाचारी श्रमणधर्म की शुद्धि की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है।
गुरु की आज्ञा और शास्त्राज्ञा जो भी है उन्हें उसी रूप में आत्मसात् करते हुए श्रमणधर्म की आराधना में मग्न रहना यह 'तहकार' नामक समाचारी है।
श्रमण-श्रमणी ही नहीं समस्त चतुर्विध संघ में विनय का सर्वाधिक महत्त्व है। विनय को शास्त्रों में धर्म का मूल कहा है। विनय की उपस्थिति में ही सारे विधान और सारी साधनाएँ फलित होती हैं अतः नवी समाचारो विनर स्वरूप 'अब्भुट्ठाण' है। गुरु या रत्नाधिक के प्रति विनयवान होकर रहना। वे अर्थात् गुरु-गुरुणी या रत्नाधिक शिष्य-शिष्याओं के निकट आयें तो न केवल आसन से उठ खड़े हों और उनका सम्मान करें, अपितु सात-जाल कदम सामने जाकर उनका स्वागत करें और वे अपने पास से जायें तो उन्हें सात-आठ कदम पहुँचाने भी जायें। वे जब तक सामने रहें शिष्य नतमस्तक रहे। दसवीं समाचारी ‘उवसंपया' है, यह समाचारी अनेक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस समाचारी के अनुसार शिष्य-शिष्या गुरु-गुरुणी के द्रव्यतः और भावतः उनके निकट, उनकी छत्रछाया में निवास करें। जैसे- सिंह के निकट बैठा हुआ सिंह का छोटा बच्चा जो अनेक दृष्टि से असमर्थ-सा होता है फिर भी उसे न कोई पकड़ सकता है और न उसे कोई कष्ट दे सकता है। गुरु की छत्रछाया में रहने वाला शिष्य भी इसी तरह
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