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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
साधु कहना चाहिए।
5. केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता । प्रत्युत वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है। 6. कोई भी गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु । अतः साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो रागद्वेष में समभाव रखता है, पूज्य है।
7. देहादि में अनुरक्त, विषयासक्त, कषायसंयुक्त तथा आत्मस्वभाव में सुप्त साधु सम्यक्त्व से शून्य होते हैं।
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8. गोचरी अर्थात् भिक्षा के लिए निकला हुआ साधु कानों से बहुत सी अच्छी-बुरी बातें सुनता है और आँखों से बहुत सी अच्छी बुरी वस्तुएँ देखता है, किन्तु सबकुछ देख-सुनकर भी वह किसी से कुछ कहता नहीं है । अर्थात् उदासीन रहता है।
9. स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधु रात में बहुत नहीं सोते हैं। सूत्र और अर्थ का चिन्तन करते रहने के कारण वे निद्रा के वश नहीं होते।
10. साधु ममत्वरहित, निरहंकारी, निस्संग, गौरव का त्यागी होने के साथ त्रस और स्थावर जीवों के प्रति समदृष्टि रखता है।
11. वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में, निंदा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है।
12. वह गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त अनिदानी और बन्धन से रहित होता है।
13. वह इस लोक और परलोक में अनासक्त, वसूले से छीलने या चन्दन का लेप करने पर तथा आहार के मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है, हर्ष - विषाद नहीं करता ।
14. ऐसा श्रमण अप्रशस्त द्वारों (हेतुओं) से आने वाले आश्रवों का सर्वतोभावेन निरोधकर अध्यात्मसम्बन्धी ध्यान-योगों से प्रशस्त संयम-शासन में लीन हो जाता है।
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15. भूख, प्यास, दुःशय्या (ऊँची-नीची पथरीली भूमि) ठंड, गर्मी, अरति, भय आदि को बिना दुःखी हुए सहन करना चाहिए। क्योंकि दैहिक दुःखों को समभावपूर्वक सहन करना महाफलदायी होता है। 16. समता रहित श्रमण का वनवास, कायक्लेश, विचित्र उपवास, अध्ययन और मौन व्यर्थ है । 17. प्रबुद्ध और उपशान्त होकर संयतभाव से ग्राम और नगर में विचरण करना चाहिए । शान्ति का मार्ग बड़ा है। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
- 62, ओ.टी.सी. स्कीम, चरक छात्रावास के पीछे, उदयपुर (राज.)
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