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________________ |278 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 34. सचित्त शृंगबेर (अदरक) का सेवन करना। 35. सचित्त इक्षु-खण्ड का सेवन करना। 36. सचित्त कन्द का सेवन करना। 37. सचित्त मूल का सेवन करना। 38. सचित्त फल- अपक्व फल ग्रहण करना। 39. सचित्त बीज- अपक्व बीज ग्रहण करना। 40. सचित्त सौवर्चल लवण- अपक्व सौवर्चल नमक का उपयोग करना। 41. सचित्त सैंधव लवण- अपक्व सैन्धव नमक का उपयोग करना। 42. सचित्त लवण का उपयोग करना। 43. सचित्त रुमा लवण- अपक्व रुमा नामक लवण का उपयोग करना। 44. सचित्त सामुद्र लवण- अपक्व समुद्र लवण का उपयोग करना। 45. सचित्त पांशु-क्षार लवण- अपक्व ऊषर-भूमि का नमक प्रयोग करना। 46. सचित्त कृष्ण लवण का उपयोग करना। 47. धूम नेत्र- धूम्रपान की नलिका रखना। 48. वमन- रोग की संभावना से बचने के लिए, रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना। 49. वस्तिकर्म- अपानमार्ग से तेल आदि चढ़ाना। 50. विरेचन करना। 51. अंजन- आँखों में अंजन आंजना। 52. दंतवण- दाँतों को दतौन से घिसना। 53. गात्रअभ्यङ्ग- शरीर में तेल-मर्दन करना। 54. विभूषण- शरीर को अलंकृत करना। __उपर्युक्त अनाचारों की संख्या में अलग-अलग परम्पराओं में न्यूनाधिक्य देखने को मिलता है, किन्तु यह भेद संख्यागत है, तत्त्वतः नहीं। जब अनाचारों की संख्या 52 होती है तब उपर्युक्त 54 भेदों में क्रम संख्या (7) गंध एवं (8) माला को एक साथ गिना जाता है तथा (42) सचित्त लवण की पृथक् गणना नहीं की जाती है। जो कार्य मूलतः सावध हैं या जिनका हिंसा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, वे हर परिस्थिति में अनाचीर्ण हैं, जैसे- सचित्त भोजन, रात्रि-भोजन आदि। जिनका निषेध विशेष विशुद्धि या संयम की उग्र साधना की दृष्टि से हुआ है, वे विशेष परिस्थिति में अनाचीर्ण नहीं रहते। जैसे- अंजनविभूषा श्रृंगार की दृष्टि से हर समय अनाचार है, पर नेत्र-रोग की अवस्था में अंजन-प्रयोग अनाचार नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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