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|| 10 जनवरी 2011 ।
जिनवाणी मोह-त्याग का बहुत बड़ा साधन माना है। इसका प्रारम्भ बाहरी वस्तुओं से होता है और अन्त में 'अन्यच्छरीरमन्योऽहम्'- यह मेरा शरीर मुझसे भिन्न है और मैं इससे भिन्न हूँ- यहाँ तक पहुँच जाता है।" यह भेद-विज्ञान आत्म-भिन्न विषयों में आसक्त इन्द्रियों को अनुशासित करता है और अनुशासित इन्द्रियाँ ही मन-निग्रह की प्रथम हेतु होती हैं। अतः भेदविज्ञान मनोनिग्रह का प्रथम सोपान है। स्व की स्वतन्त्रता के बोध से प्रतिस्रोत में गति
‘मनो पुब्बङ्गमा धम्मा”- मन ही सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है। मन के विचारों का क्रम दैनिक प्रवृत्तियों को अनुशासित करता है। मन में आए विचारों के अनुरूप चलते रहने का मतलब है निरन्तर उदय में आ रहे कर्मों के स्रोत में बहना। मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो इस स्रोत में चाहे तो बहे अन्यथा न बहे। बहने और न बहने का सामर्थ्य ही उसकी ‘स्वतन्त्रता' है। यही स्वतन्त्रता संयम की ओर बढ़ने का, इन्द्रिय-निग्रह का, स्व में स्थित होने का, निरपेक्ष होने का, मोह रहित होने का, मन की पूर्ण शुद्धि का, जन्म-मरण की परम्परा को तोड़ने का, संसार-सागर से पार होने का, समिति-गुप्ति के निर्वहन का, अनुस्रोत से प्रतिस्रोत में आने का और मुक्ति प्राप्त करने का हेतु है। दशवैकालिकसूत्रकार ने कर्मों के आस्रव में बहने को अनुस्रोत तथा उसमें तटस्थ होकर संयमित रहने को प्रतिस्रोत कहा है, आगम के
शब्दों में
अणुसोयपट्ठिएबहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अप्पा दायव्वो होउकामेणं ।। अणुसोयसुहो लोगो पडिसोओ आसवो सुविहियाणं
अणुसोओ संसारो पडिसोओ तस्स उत्तारो।।' अभिप्राय यह है कि अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे हैं अर्थात् भोग मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषयभोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिए अर्थात् विषयानुरक्ति में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए। जनसाधारण को स्रोत के अनुकूल चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु जो सुविहित साधु है, उसका आश्रव-प्रतिस्रोत' (इन्द्रिय-विजय) होता है। अनुस्रोत संसार है (जन्म-मरण की परम्परा है) और प्रतिस्रोत उसका उत्तार है। (जन्म-मरण से रहित होना है) मन में उत्पन्न काम का निग्रह किये बिना श्रामण्य असंभव
'संकल्पमूलः कामो वै" काम का मूल संकल्प है। संकल्प से काम और काम से विषाद- यह इनके उत्पन्न होने का क्रम है। इस क्रम को भंग करना काम का निग्रह है। जिसे अगस्त्य चूर्णि में उद्धृत श्लोक में इस प्रकार कहा है
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