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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || योग्य वस्तु हो एवं साधु को उसकी आवश्यकता हो तो श्रावक के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम उस वस्तु को देने से इन्कार न करें, क्योंकि वे तो गृहस्थ के घर से ही वह वस्तु प्राप्त कर सकते हैं। चाहे किसी सम्प्रदाय के साधु-साध्वी हों, यदि वे गोचरी हेतु आपके घर आ रहे हों तो न उनके प्रति घृणा भाव लावें एवं न क्रोध तथा द्वेषवश उनके प्रवेश का निषेध करने हेतु घर-दरवाजा बंद करें। ऐसा करना जघन्य पाप की श्रेणी में आता है एवं निकाचित कर्मों के बंध का आधार बनता है। साधु-साध्वी के लिए अपने उपयोग हेतु वस्तु-प्राप्ति का स्थान मात्र गृहस्थ का घर है।
आज विहार-चर्या में साधु-साध्वीगण पूरी तरह असुरक्षित हैं। पिछले दो वर्षों में कितने ही महान् संतगण एवं महासतीवृन्द अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। इस बिगड़े हुए जमाने एवं माहौल में जहां नैतिकता अपने निम्नतम धरातल को छू चुकी है, साध्वीवृन्द का विहार और ज्यादा कष्टप्रद एवं आपदाओं से भरा है। जैन-जैनेतर अपरिचित क्षेत्र में उनका रात्रि विश्राम भी संकटों से भरा होता है, अतएव श्रावक-श्राविका वर्ग का कर्त्तव्य है कि साधु-साध्वी वृन्द को अपने गांव या क्षेत्र में बुलाकर ही . संतोष नहीं करें, वरन् उन्हें अगले गांव या जहां जैन साधुचर्या के जानकार लोग न मिलें वहाँ तक उन्हें सुरक्षित पहुँचाना एवं रात्रि को उनकी सुरक्षा हेतु ठहराना भी उनका कर्त्तव्य बन जाता है ताकि हमारे पंच परमेष्ठी साधु-साध्वीवृन्द की इज्जत एवं मर्यादा को कोई आंच न आवे। किसी एक गांव से विहार कर वह किस रास्ते से जावे एवं कहाँ-कहाँ ठहरने पर उन्हें गोचरी-पानी प्राप्त करने में कष्ट का सामना नहीं करना पड़ेगा एवं कितने किलोमीटर का विहार करना जरूरी होगा, यह भी पता लगाना हम श्रावकों का कर्तव्य है। यदि साधु-साध्वीवृन्द रुग्ण हैं तो उन्हें मार्ग में परिचर्या के साधन उपलब्ध कराना एवं कहाँ जाकर उनका स्थायी उपचार हो पायेगा एवं ऐसा स्थायी उपचार कौन करेगा एवं कहाँ व किस अस्पताल में उपलब्ध हो पायेगा, यह जानकारी एवं सुविधा कराना भी हम श्रावकों का श्रमणों के प्रति एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।
अंत में श्रमण एवं श्रावक के आपसी व्यवहार पर एक श्लोक उद्धृत कर मैं अपना कथन समाप्त करना चाहूँगा। वह श्लोक निम्न प्रकार है
धन्ना णं ते जीवलोट, गुरवो निवसंति जस्स हियम्मि।
धन्नाणं वि सो धन्नो, गुरुण हिय वसई जऊ। अर्थात् वे शिष्य या श्रावक धन्य हैं जिनके हृदय में गुरु अथवा श्रमण परमेष्ठी का निवास है, परन्तु वे शिष्य या श्रावक धन्यातिधन्य हैं, जिनका अपने गुरु के हृदय में निवास है, जैसाकि गुरु हीराचन्द्र जी एवं मानचन्द्र जी का अपने गुरु हस्तीमल जी महाराज के हृदय में एवं आचार्य देवेन्द्रमुनि जी का अपने गुरु पुष्कर मुनि जी के हृदय में निवास था।
-अध्यक्ष, जोधपुर मंदिर दुखान्तिका आयोग सिरेह सदन, 20/33, रेणु पथ, मानसरोवर, जयपुर (राज.)
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