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|| 10 जनवरी 2011 || | जिनवाणी
247 चाहिए ताकि उन संत या महासती की संयम-यात्रा में सहयोगी की भूमिका निर्वहन हो सके।
श्रावक-श्राविका को श्रमण-श्रमणी के माता-पिता (अम्मापियरो) के विरुद से सम्मानित किया गया है। हमारा बतौर श्रावक यह कर्तव्य है कि हम श्रमणों एवं महासती मण्डल के गोचरी, विहार, बीमारी में औषधि, परिचर्या आदि के प्रति सजग व जागरूक रहें ताकि श्रमणवर्ग को उनकी श्रमण चर्या की मर्यादाओं का पालन करने में कठिनाई का सामना न करना पड़े। श्रमण 42 दोष टाल कर भिक्षा ग्रहण कर सकता है, अतएव श्रावक इस बात के प्रति सावधान रहे कि श्रमणों एवं महासतीवृन्द को प्रासुक जल एवं निर्दोष गोचरी बहरावें। आधाकर्मी आहार हरगिज न बहरावे। उनके वस्त्र-पात्रों की आवश्यकता भी श्रावकों को ही पूरी करनी पड़ती है, पर इसमें साधु मर्यादा खंडित हो ऐसा व्यवहार हम कदापि न करें। श्रमण अणगार है, अतः उनके ठहरने का शय्यातर हमें ही बनना पड़ता है। उनके बैठने के पाट-पाटलों की निर्दोष व्यवस्था भी करना श्रावक का ही कर्त्तव्य बनता है। श्रमण पाँच आचार का पालक होता है, छः काय का रक्षक होता है। वह सातों कुव्यसनों का आजीवन त्यागी, आठ मदों का त्यागी, शुद्ध ब्रह्मचर्य (नववाड़ सहित) का पालक, दस प्रकार के यति धर्म का धारक, बारह प्रकार से तप करने वाला, सत्रह भेद से संयम की पालना करने वाला, अठारह पापस्थान का त्यागी, बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है। वह न बुलाये आता है न न्यौता प्राप्त कर गोचरी प्राप्त करता है, वह सचित्त का त्यागी एवं अचित्त को ग्रहण करता है। लोच करने वाला एवं नंगे पांव अपना वजन खुद अपने पर लाद कर चलने वाला होता है एवं मोह-ममता रहित होकर विचरता है। हम श्रावकों का कर्तव्य है कि हमारा श्रमणों के साथ ऐसा समर्पित विनय एवं विवेकपूर्ण व्यवहार होना चाहिए कि उनकी इन उपर्युक्त एवं अन्य साधु मर्यादाओं के पालन में किसी तरह का विक्षेप न आवे। अलबत्ता इस संयमसाधना में हमारी भूमिका सहयोगी की होनी चाहिए। अत्यधिक मोह-ममतावश ऐसा कुछ न करें, जिससे उनकी साधना-आराधना एवं श्रमणचर्या में कोई विघ्न उपस्थित हो। माता-पिता का कर्त्तव्य अपनी संतान के हित-चिन्तन का एवं उनके संकल्पित लक्ष्य में सहयोग कर उन्हें अपने आत्म-कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ाने का होता है। श्रावक-श्राविका श्रमणों एवं साध्वीवृन्द के माता-पिता हैं। विरक्त आत्माएँ संसार को हमारे भरोसे नहीं छोड़ते, परन्तु उनकी वीतरागता की साधना में हमें अपेक्षित योगदान आगे बढ़ कर देना होता है, यह हर श्रावक का कर्तव्य है एवं उसका प्रमोदपूर्वक पालन ही हमारे श्रावकत्व को गौरवशाली बनाता है। अतएव हमें चाहिए कि हम राग-भाववश साधु-साध्वीवृन्द को अकल्पनीय वस्तु का दान न दें, न आधाकर्मी आहार उन्हें बहरावें। द्वेषवश देने योग्य अचित्त वस्तु को जानबूझकर सचित्त से ढंके नहीं अथवा देने योग्य वस्तु जो साधु को लेनी कल्पती है उसे कपट एवं मायाभाव से अपनी न बताकर साधु-साध्वी को उचित दान प्राप्ति से वंचित भी नहीं करें। जब साधु-साध्वी को कोई वस्तु देने का मौका आवे तो अहं या द्वेष वश दूसरे सम्प्रदाय का साधु समझकर स्वयं वह वस्तु दान में न देकर दूसरों से उसका दान नहीं करवावें एवं साधु-साध्वी को दान देकर कभी पश्चात्ताप न करें। घर में देने
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