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10 जनवरी 2011 जिनवाणी
241 प्रभु ने अपनी अन्तिम देशना जो उत्तराध्ययन सूत्र के रूप में गुंफित है, का प्रथम अध्ययन शिष्य या श्रावक के विनय को समर्पित किया है। घड़ा पानी में झुके नहीं तो भर नहीं पाता, अतः गुरु से ज्ञान-प्राप्ति का प्रथम सूत्र है कि श्रावक का श्रमण के साथ व्यवहार अति विशिष्ट एवं विनययुक्त होना चाहिए। तभी शिष्य या श्रावक को लक्ष्य में रखकर कहा गया है- "जिन सेव्या तिन पाया ज्ञान।" गुरु ज्ञान उसी शिष्य को प्रदान करता है जो विनीत हो। बिना गुरु का ज्ञान शब्दज्ञान भले ही हो वह सम्यक् ज्ञान नहीं हो सकता। सम्यकता के अभाव में विवेक नहीं पनप सकता। सम्यक् ज्ञान के लिए आवश्यक है गुरु-भक्ति, गुरु-विनय एवं गुरु-समर्पण। तभी संस्कृत सुभाषित में कहा है- “विना गुरुभ्यो गुणवीरधीभ्यो, जानाति तत्त्वं न विचक्षणोऽपि। आकर्णदीर्घा मितलोचनोऽपि, दीपं बिना पश्यति नांधकारो॥" इसका भावार्थ है गुणसागर गुरु के बिना अति विचक्षण बुद्धि वाला व्यक्ति भी तत्त्वों को नहीं जान सकता। जैसे कि कानों तक फैले हुए विशाल नेत्रों वाला व्यक्ति भी दीपक की सहायता के बिना अंधकार में नहीं देख सकता। संत तुकाराम जी कहते हैं- “सद्गुरु वांचो नी सांपडेना सोय। धरावे ते पाय आधी आधी।" सद्गुरु-श्रमण के समागम के बिना श्रावक मानव को सही मार्ग मिलना सम्भव नहीं है। सद्गुरु संत-श्रमण की संगति करने पर एवं उनसे व्यर्थ के वाद-विवाद की बजाय सच्ची ज्ञानचर्चा करने पर ही इस राग-द्वेष व कषाययुक्त सांसारिक भुल-भुलैया से निकलने का पथ मिल सकता है।
वस्तुतः सीखने की कुशल कला का नाम ही शिष्यत्व या श्रावकत्व है। शिष्य का अर्थ ही है जो झुकने को राजी हो। जैसाकि पहले कह चुका हूँ कि वही व्यक्ति-घड़ा ज्ञानरूपी पानी से भरेगा जो गुरुज्ञान रूपी सरोवर में अपने को झुकाने में सक्षम होगा। श्रावक वही है जो ज्ञान को अपने अंहकार से अधिक महत्त्व दे। प्रकाश की छोटी सी किरण को पाने हेतु झुकने को राजी हो। सब कुछ पाने को गुरु चरणों में सब कुछ खोने को तत्पर हो। शिष्य या श्रावक का अर्थ ही है गुरु व श्रमणों के प्रति गहन विनम्रता। झुके बिना ज्ञान उपलब्ध ही नहीं होता। सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने हृदय के द्वार से गुरुज्ञान को स्वीकार कर लेने हेतु परम प्रसन्नता के साथ तत्परता का भाव ही शिष्यत्व अथवा श्रावकत्व है। गुरु एवं शिष्य अथवा श्रमण एवं श्रावक का मिलन श्रावक के मौन तथा श्रमण के शब्द से होता है। आत्मा को गुरु (श्रमण) के समक्ष खड़ी करने से पूर्व गुरु (श्रमण) चरण को अपने हृदय की अंतरतम श्रद्धा से पखार लो। इसी से भीतर का काम-कषाय जलकर जीवन निखरेगा। गुरु के समक्ष इस प्रकार उपस्थित हों जैसे हम हैं ही नहीं। महत्त्वाकांक्षाओं से हृदय को खाली करो ताकि गुरु (श्रमण) उसमें कुछ भर सकें। तभी कवि कहता है- "गुरु दरश को जाइये तज माया अभिमान। ज्यों-ज्यों पग आगे धरे, त्यों-त्यों यज्ञ समान।"
यह एक अनुभूत सत्य है कि आत्म-विद्या का ज्ञान श्रमण गुरु से ही सीखा जा सकता है। करोड़ों शास्त्र पढ़ने से भी आत्मज्ञान प्राप्त करना कठिन है। एक कुशल गुरु (श्रमण) माली की तरह वासना, विकार एवं दुर्विचारों का झाड़ झंखाड़ उखाड़ कर जीवन में सद्गुणों के पौधों की रक्षा करता है एवं अपने
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