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________________ | 240 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || उन्हें ग्रहण करने में तत्पर हो तथा जिसका गुणीजनों के प्रति अनुराग एवं प्रमोद का भाव हो एवं जो सदैव आगम या शास्त्र-श्रवण का रसिक हो। एक आदर्श श्रावक विवेकशील होता है। वह धर्म-श्रवण में सागर के समान गंभीर एवं धर्मश्रद्धा में पर्वत के समान अडोल, अकम्प तथा अडिग होता है। वह जिनशासन की प्रभुता तथा महत्ता के प्रति समर्पण में आकाश के समान विशाल हृदय वाला होता है एवं संघनिष्ठा और संघ-समर्पण में धरती की तरह धैर्यवान होता है। वस्तुतः सच्चा श्रावक प्राणिमात्र पर प्रेम एवं स्नेह की वर्षा करने वाला, अज्ञान व मोह के प्रति सावधान एवं अप्रमादभाव वाला होता है, वह इन्द्रिय-विषयों को संयमित करने में श्रमशील होता है, राग-द्वेष एवं कषायों के शमन में प्रयत्नरत रहता है, स्वदोष-दर्शन में विश्वास करने वाला व परदोषदर्शन से दूर रहने वाला होता है। श्रावक सदैव भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक रखने वाला सादगी एवं सरलता को जीवन में अपनाने वाला, हृदय में दया को प्रमुख स्थान देने वाला एवं हंसते-हंसते परीषहों को सहन कर क्षमाशीलता के भाव को जीवन में उतारने वाला होता है। तभी गुरु शिष्य से कहते हैं“उज्जुदंसिणो" हे शिष्य! हे श्रावक! तू ऋजुदर्शी एवं सरलदृष्टि बनना। श्रमण एवं श्रावक दोनों शब्दों की व्याख्या, महत्त्व एवं कर्तव्यों का संक्षिप्त विश्लेषण कर यह बताया गया है कि श्रमण कौन होता है एवं श्रावक किन योग्यताओं का धारक होता है। अब हम मूल विषय पर आते हैं कि इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध कैसे होने चाहिए। मैं पहले ही कह गया हूँ कि इनका सम्बन्ध गुरु-शिष्य का एवं परमेष्ठी व समर्पित उपासक का सम्बन्ध है। संस्कृत में एक सुभाषित है- 'एतद् सर्वं गुरोर्भक्त्या ' अर्थात् सब रोगों की एक दवा है और वह है गुरुभक्ति एवं गुरुचरणों में समर्पण। परमात्मा परोक्ष है व गुरु प्रत्यक्ष हैं। वे ही ज्ञान प्रदान करते हैं। कहा है- “आचार्यात् विदधाति आचार्यवान् पुरुषो वेदा।" यानी बिना गुरु के परमात्मा का भी पता नहीं लगता है, अतः शिष्य के लिए गुरु से सम्बन्धों के प्रति आगम का कथन है- “आणाए गुरु" सदैव गुरु-आज्ञा में चलें। तभी गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- “गुरु बिन भव निधि तरहीं न कोई। चाहे विरंचि शंकर समहोई।" आप चाहे कितने ही ज्ञानी हों, पर गुरु के सहारे के बिना भवसागर के पार नहीं उतर सकते। एक राजस्थानी कवि ने गुरु-शिष्य के सम्बन्धों पर कितना सटीक कहा है- “सत्गुरु मेरा शूरमा करे शबद की चोट। मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट। अर्थात् मेरा सद्गुरु श्रमण ऐसा शूरवीर है कि वह तलवार या भाले का नहीं आगमोक्त वचनों की चोट करता है। वह प्रेमयुक्त प्रेरणा या फटकार बताकर भी मन के समस्त संशयों के किले को ध्वस्त कर देता है। इसका अर्थ यही है कि श्रावक को सदा अपने सद्गुरु श्रमण के प्रति श्रद्धानिष्ठ एवं समर्पित रहना चाहिए। उसमें दो गुण अति आवश्यक हैं जिनके बिना न वह सच्चा श्रावक बन सकता है न ही वह धार्मिक बन सकता है। प्रभु ने फरमाया है कि - "विवेगे धम्ममाहिए।" विवेक में धर्म कहा है। यह धर्म विनयवान एवं विवेकशील को प्राप्त होता है। पूरा नवकार मंत्र जिसमें पंच परमेष्ठी के प्रति विनय का भाव है, उसका हर पद ‘णमो' से अर्थात् नमन या विनय से प्रारम्भ होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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