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| जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || और उसमें कर्ता का ध्यान पूर्णतः लगा है। उसे ध्यान है कि वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है और करते वक्त जो भी सही रूप से करना है उसकी स्मृति रहती है। यह स्मृति ही बाद में बिगड़ कर ‘समिति' बन गया। श्रमण के लिए पाँच समिति व तीन गुप्ति का प्रावधान है और उसका पालन श्रमणाचार का विशेष अंग है। पाँच समिति निम्न प्रकार हैं1. ईर्या समिति (आवागमन स्मृति पूर्वक करना) 2. भाषा समिति (भाषा ध्यानपूर्वक बोलना) 3. एषणा समिति (भिक्षा ध्यानपूर्वक लाना) 4. निक्षेपण समिति (वस्त्र, पात्र, शास्त्र आदि ध्यानपूर्वक उपयोग में लेना) 5. प्रतिष्ठापना समिति (मल-मूत्र-श्लेष्म आदि का प्रतिष्ठापन ध्यानपूर्वक करना)
प्रत्येक कार्य को ध्यानपूर्वक करना भी ध्यान की साधना के समान है। चलते वक्त ध्यानपूर्वक चलें तो साधना है और तेजी से बातें करते हुए या इधर-उधर देखते हुए चलना अविवेक है। ईर्या समिति के लिए निर्देश है कि नीचे दृष्टि रखकर, देह प्रमाण भूमि देखकर व अन्य कार्यों व विचारों से मन हटाकर ध्यान से चलना चाहिए। अनुभव करके देखें कि यदि ध्यानपूर्वक चलें तो नज़र दो गज से ज्यादा उठ ही नहीं सकती। चलते वक्त चिंतन व अन्य कोई काम न करें तो चलन स्मृतिपूर्वक यत्न से होगा और पाप का बंध भी नहीं होगा।
श्रमण के लिए पाँच महाव्रत, बारह तप, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति का प्रावधान मुख्य है। तीन गुप्ति में मन, वचन व काया को गुप्त करने का निर्देश है अर्थात् मन को व्यर्थ में इधर-उधर जाने न दें। वचन कम से कम बोलें व जो भी बोलें किसी के लिए कष्टप्रद न बोलें। काया को भी साधना के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में प्रयुक्त न करें। अध्यात्म में लीन श्रमण बाह्य आचार से अधिक आन्तरिक शुद्धि में व्यस्त रहता है। आन्तरिक शुद्धि ही अंतिम लक्ष्य है और बाह्य आचार प्रारम्भिक भूमिका है जो अंतर में जाने में सहायक है।
आचार बाहरी या ऊपरी निर्देश है जो साधक के लिए प्रारम्भिक अवस्था में मार्गदर्शक, रक्षाकवच और लक्ष्यप्राप्ति में सहायक होता है। आचार को द्रव्य रूप से पालने की अपेक्षा भावपूर्वक पालना अधिक महत्त्वपूर्ण है। अपने लक्ष्य पर पहुँचने पर आचार चारित्र में परिवर्तित हो जाता है। चारित्र वह है जो स्व विवेक व प्रज्ञा से प्रकट होता है और जिसमें बाहरी निर्देश की आवश्यकता नहीं रहती। यही चारित्र ‘यथाख्यात' चारित्र कहलाता है जिसका अर्थ है जो प्रकट में है वैसा ही अंतरंग में है, दिखावे के लिए कुछ भी नहीं है। वही चारित्र स्थायी चारित्र है। क्योंकि थोपा हुआ आचरण कभी भी स्खलित हो सकता है। यथाख्यात चारित्र अंतिम स्थिति है और उस पर बाहरी संस्कार या आवेश का कोई असर नहीं होने वाला है। आन्तरिक साधना से स्वतः यथाख्यात चरित्र की प्राप्ति होगी और वही स्थायी चारित्र है। .
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