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| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी । धर्मध्यान में लगाना होता है। ध्यान में लीन होने का मुख्य उद्देश्य है मन की भाग दौड़, चंचलता, ऊहापोह खत्म कर चित्त को शांत करना, समता को प्राप्त होना, समाधि को प्राप्त करना, समाधि शब्द 'सम+आधि' से बना है जिसका अर्थ है समता की आय और जब समता की आवक मन में हो तो मन में समाधि आती है। कायोत्सर्ग तब होता है जब मन देह के प्रति विमुक्त होकर देहातीत हो जाय। स्वाध्याय व ध्यान को साधना में इतना महत्त्व दिया है कि साधु को निर्देश है कि वह दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, द्वितीय प्रहर में ध्यान करे तथा तीसरे प्रहर में आहार करे। अतः जैन साधना में स्वाध्याय व ध्यान का प्रमुख स्थान है, परन्तु वर्तमान में ध्यान व कायोत्सर्ग का केवल जिक्र होता है, आचरण कम। ध्यान की विधि
ध्यान लगा कर मन को शांत करने का सरल उपाय है- आते-जाते श्वास को देखना, उसी पर ध्यान केन्द्रित करना। जब मन एकाग्र हो जाय तो धीरे-धीरे शरीर के विभिन्न हिस्सों को देखना और वहाँ हो रही संवेदना को समता से देखना। मन की आदत है राग या द्वेष करना । जब शरीर के विभिन्न अंगों को देख रहे हैं तो वहाँ हो रही संवेदना कैसी भी हो- सुखद या दुखद या न सुखद न दुखद, सबके प्रति बिना रागद्वेष जगाये समभाव से देखना है और इस प्रकार मन को समता में स्थित करना है। यह अभ्यास से संभव है। अतः ‘अभ्यास व वैराग्य' समता प्राप्त करने की कुंजी है। समिति : वर्तमान में रहना
__इस प्रकार मन की आदत है भूत या भविष्य में रमण करना। वह वर्तमान में टिकता ही नहीं। भूत के सुख या दुःख भरे दिनों को वह याद करेगा, अन्यथा भविष्य के सुनहरे सपने संजोयेगा या भविष्य की चिंता कर दुःखी हो जायेगा। परन्तु भूत व भविष्य को छोड़ वर्तमान को स्वीकार कर लेगा और इसी में आनंद मनायेगा तो समता व समाधि को प्राप्त कर लेगा। वर्तमान ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जो चला गया वह आ नहीं सकता।
और जो अभी आया नहीं उस पर कोई जोर नहीं। अतः वर्तमान पर ध्यान देना, इसी में जीना व इसका लाभ उठा कर भविष्य का निर्माण करना ज्ञानवान का काम है। जो वर्तमान में नहीं जीता वह वर्तमान के सुख से तो वंचित है ही, भविष्य भी बिगाड़ रहा है। वर्तमान में जो भी कर रहे हैं उसे ध्यान से व स्मृतिपूर्वक किया जाय। इसे ही विवेक कहते हैं और दशवैकालिक सूत्र के अनुसार विवेक से (यत्नपूर्वक) कार्य करने से पाप कर्म का बंध नहीं होता, यह निम्न सूत्र से स्पष्ट है
जयं चरे, जय चिठे, जयमासे, जयं सट। जयं भुजंतो-मासंतो, पाव कम्मं न बंधइ।।
-दशवैकालिक सूत्र,4.7 अर्थः- यत्न से चले, यत्न से बैठे, यत्न से सोये, यत्न से खाए और यत्न से बात करे तो पाप कर्म का बंधन नहीं होता। यहाँ यत्न का अर्थ है विवेक या ध्यान से काम करना। जो भी काम यत्न से होता है वह विवेकपूर्ण होता है
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