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|| जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || 10. संथारा- यह वह प्रक्रिया है, जहाँ श्रमण मृत्यु को महोत्सव के रूप में प्रसन्नता-पुरस्सर मनाता है।
संलेखना संथारे के पूर्व की भूमिका है। संलेखना के अनन्तर जो संथारा किया जाता है, उसमें अधिक विशुद्धता आविर्भूत होती है। साधक को संथारा ग्रहण करने के पूर्व संलेखना का संपालन करना अनिवार्य होता है। संलेखना के स्थान पर संल्लेखना शब्द भी व्यवहत है। जिस क्रिया के द्वारा शरीर और कषाय को कृश एवं दुर्बल किया जाता है वह संलेखना है। शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है तथा कषाय को कृश करना भाव-संलेखना' है। संलेखना अध्यात्म-साधक के अन्तर्मन की उच्चतम भाव-स्थिति है। यह मरण का सहर्ष स्वागत है, सादर वरण है। यह श्रमण-जीवन की उस निष्काम, निःसंग और स्थितप्रज्ञ की अवस्था में प्रवेश है। इतना ही नहीं, वह भेद विज्ञानी विशिष्ट श्रमण निराकुल अन्तःस्थिति में अपनी जागतिक-पर्याय का परित्याग कर नवीन पौद्गलिक शरीर पर्याय को ग्रहण करने की आकांक्षा को
तिलांजलि देता है। 11. प्रवचन माता- यह वह आचार-संहिता है, जो श्रमण-जीवन के लिये वरदान रूप है। पंचविध समितियों
और त्रिविध गुप्तियों को समवेत रूप से प्रवचन-माता' की अभिधा से अभिहित किया है" एवं समिति' का नाम संस्कार भी हुआ है। प्रवचन माता एवं समिति यह नामकरण भी अभिप्रेत-अभिप्राय को प्रद्योतित करता है। सर्व प्रवचन और सर्वगुप्ति की पृष्ठभूमि में तथ्यद्वय संनिहित है। प्रथम तथ्य यह है कि धर्मशासन इन्हीं से समुद्भूत हुआ है, एवं यह द्वादशांगी का सार है। द्वितीय तथ्य यह है कि श्रमण के अहिंसा, सत्य प्रभृति महाव्रतों की यह माता के समान परिपालना करती है। माता की यही अभीप्सा रहती है कि आत्मप्रिय पुत्र सन्मार्ग पर अग्रसर रहे। वह अपने चिरंजीव के संरक्षण तथा चारित्र-निर्माण के लिये नित्यशः प्रयासशील रहती है। यह माता साधक को सम्यक् प्रवृत्ति की ओर बढ़ने की सप्राण प्रेरणा देती है, उन्मार्ग पर जाने से एवं दुष्प्रवृत्ति से रोकती है, उसके चारित्र धर्म का विकास करती है, शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति कराती है। सम्यक् प्रवृत्ति का नाम 'समिति' है और अशुभ से निवृत्ति 'गुप्ति' है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और परिष्ठापनिका के रूप में समिति पाँच प्रकार की है। श्रमण की चर्या वस्तुतः समिति-सम्पृक्त होती है। जब उनके चरण चलते हैं, तब ईर्या समिति चरितार्थ होती है। वे जब भी बोलते हैं, तब उनके वचन यथार्थ में प्रवचन बन जाते हैं। वे जब आहार ग्रहण करते हैं, तब षट्रस एकमेक होकर विरस, किन्तु सरस हो जाते हैं। वस्तु के निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति-व्यवहार में उनकी चर्या निरीह-प्राणियों की विराधना से वंचित हो जाती है, सर्वथा सजग एवं प्रमाद-विमुक्त रहती है। वास्तव में उपयोग पुरस्सर सम्यक्रूपेण प्रवृत्ति करना ‘समिति' है। मन, वचन एवं काय को अशुभ प्रवृत्ति से विमुख रखना ‘गुप्ति' है। इतना ही नहीं, अपितु मन, वचन एवं काय इन त्रिविध योग के सत्य, असत्य, सत्यामृष एवं असत्यामृष अर्थात् व्यवहार ये चार-चार प्रकार करके स्पष्टतः समझाया है कि साधक केवल सत्यपूर्ण
और व्यवहार समन्वित भाषा का प्रयोग करे, असत्य एवं सत्यामृषा भाषा कदापि अंशतः न बोले, इस प्रकार मन के चिन्तन एवं काय योग को भी पूर्णतः नियन्त्रण में रखे। समिति प्रवृत्ति रूप है, गुप्ति निवृत्ति रूप
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