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________________ 205 || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी 8. रजोहरण- श्रमण के प्रत्येक चरण में अहिंसा की प्रधानता सुनिश्चित रूप से रहती है। श्रमण-समूह के संक्षिप्त, किन्तु प्रमुख उपकरणों में रजोहरण' भी एक है। यह वह शब्द विशेष है, जो दो उपशब्दों से गठित है। प्रथम ‘रज' है और द्वितीय ‘हरण' है। यह धूल-कणों को दूर करने का उपकरण है। 'रजोहरण' का निर्माण पांच प्रकार के धागों के योग से बनता है। उनके नाम इस प्रकार से हैं और्णिक- ऊन से बने सूत अर्थात् धागों को और्णिक कहा जाता है। ऊन प्रायः भेड़ के बालों से प्राप्त होती है। यह अनेक प्रकार की होती है। ऊन के सूत से निर्मित वस्त्र अत्यंत गर्म होते हैं। सर्दी में प्रायः ऊनी वस्त्रों को धारण करने का प्रचलन रहा है। औष्ट्रिक-ऊँट के बालों के धागों से निर्मित वस्त्र औष्ट्रिक' कहलाते हैं। इस धागे से बने वस्त्र भी प्रयोग में आते हैं। मृगलौमिक-हिरण के बालों से बने सूत ‘मृगलौमिक' कहलाते हैं। कौतव-कुतुपिक अर्थात् कुतुप अथवा कुश आदिघास से बना सूत कौतव' कहा जाता है। किट्टिस- और्णिक आदि धागों से बनाते समय इधर-उधर बिखरे बालों का नाम 'किट्टिस' है। इनसे निर्मित अथवा और्णिक आदि सूत को दुहरा-तिहरा करके बनाया गया सूत अथवा घोड़ों आदि के बालों से बना सूत 'किट्टिस' कहलाता है। उपर्यंकित धागों से कलात्मक रूप में रजोहरण का निर्माण किया जाता है। चलते-फिरते, उठते-बैठते अथवा लेटते समय स्थान को छोटे-छोटे कृमि-कीटों जीव-जन्तुओं की रक्षार्थ रजोहरण का प्रयोग एवं उपयोग किया जाता है। विहारों में यदि किसी प्रकार के जीवों की विराधना होने की सम्भावना होती है, तब श्रमण रजोहरण के द्वारा उनकी पूर्ण रक्षा करता है। समाचारी- यह वह विशिष्ट रूपेण क्रिया-कलाप है, जो साधु की सम्यक् चर्या के लिये मौलिक नियमों के समान आत्यन्तिक आवश्यक और अतिशय-अनिवार्य रूप सत्कर्म है। श्रमणाचार को द्विविध-विभाग में वर्गीकृत किया गया है। प्रथम व्रतात्मक आचार है और द्वितीय व्यवहारात्मक आचार है। व्रतात्मक आचार वस्तुवृत्त्या पंचविध महाव्रत है। यह श्रमण-जीवन को सर्वथा-निर्दोष एवं सम्पूर्णतः स्वावलम्बी बनाता है। इससे आत्मिक आलोक प्रदीप्त होता है। व्यवहारात्मक सदाचरण परस्पर संपूरक की स्वस्थ भूमिका का सम्यक् निर्वाह करता है। विचार जब व्यवहार के रूप में चरितार्थ होता है, तब सामाचारी का जन्म होता है। साधुचर्या की अहर्निश प्रवृत्तियाँ वस्तुतः सामाचारी के अन्तर्गत समाहित हैं। सामाचारी साधु समुदाय एवं साध्वी-समवाय किंवा संघीय-जीवन जीने की नियमावली है। आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रति-पृच्छा, छन्दना, इच्छाकार, मिच्छाकार, तथाकार, अभ्युत्थान तथा उपसम्पदा नामक दशविधि प्रयोग-सामाचारी समास शैली से सम्प्राप्त होती है। इस प्रकार साधुचर्या का समुत्कर्ष दशांग सामाचारी के आधार पर निर्भर करता है। इससे उसके जीवन-उपवन में सद्गुणों के सहस्र-सहस्र सुमन महकते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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