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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 औपपातिक सूत्र में कहा है
धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह।
उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह।। शिष्य कहता है- प्रभो! आपने धैर्य का उपदेश देते हुए उपशम का उपदेश दिया और उपशम का उपदेश देते हुए विवेक का उपदेश दिया, अर्थात् धर्म का सार उपशम यानी समभाव है और समभाव का सार है विवेक। विवेक से उत्सुकता पर नियन्त्रण लगता है। दशवैकालिक में कहा है
वियाणिया अप्पगमपटणं ।
जो रागदोसेहिं समो से पुज्जो॥ जो अपने से अपने को जानकर रागद्वेष के प्रसंगों में सम रहता है, वही पूज्य साधक होता है। आचारांग में भी यही बात आई है-"पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि' हे साधक! तू अपने आपका ही निग्रह कर।स्वयं के निग्रह से ही तू दुःख से विमुक्त हो सकेगा। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है।
श्रमण का बावीसवाँ लक्षण है- 'अबहिल्लेसे' अपनी लेश्याओं को अशुभता की ओर नहीं जाने देने वाला श्रमण होता है। भावों की अशुभता असंयम है और असंयम श्रमणत्व का विघातक शस्त्र है। आचारांग नियुक्ति में कहा है- “भावे अ असंजमो सत्थं" भावदृष्टि से संसार में असंयम ही सबसे बड़ा शस्त्र है। अशुभ लेश्या आत्मपतन एवं आत्मशक्तियों के आच्छादन का कारण है। श्रमण अपनी लेश्याओं के शुभत्व की ओर स्थिर रहता है। “अप्पा हु खलु सययं रक्खिअव्वो" अपनी आत्मा को पापों से सतत बचाये रखना चाहिए। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है।
श्रमण का तेईसवाँ लक्षण है-'सुसामण्णरए' दस प्रकार के यतिधर्म में रमण करने वाला श्रमण होता है।
पहला यति धर्म है-खंति! क्रोध को जीते बिना क्षमा की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए श्रमण क्रोधजयी होता है।
दूसरा यतिधर्म है- मुत्ति! जो श्रमण कामनाओं को पारकर जाता है, वस्तुतः वही मुक्त श्रमण है। तीसरा यतिधर्म है- अज्जवे! श्रमण ऋजुधर्मा होता है। चौथा यतिधर्म है- मद्दवे! श्रमण मृदुता गुण से सम्पन्न होता है। पाँचवा यतिधर्म है- लाघवे! श्रमण लघुता गुणं से सम्पन्न होता है। छठा यतिधर्म है- सच्चे! श्रमण सत्य को समर्पित होता है। सातवाँ यतिधर्म है-संजमे! श्रमण का मन-इन्द्रियों से संयमी होता है। आठवाँ यतिधर्म है- तवे! श्रमण तपःपूत होता है। नौवाँ यतिधर्म है-चेइए! श्रमण ज्ञानयुक्त होता है।
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