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________________ 199 || 10 जनवरी 2011 जिनवाणी आतंक को देखता है वह पापों से दूर रहता है। आतंकदर्शी कोई पाप नहीं करता। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का उन्नीसवाँ लक्षण है- 'सोहिए।' श्रमण मन को शुद्ध, पवित्र और सरल बनाने वाला होता है। मानसिक पवित्रता और शुद्धता बिना सरलता के नहीं आती। उत्तराध्ययन में कहा है- “सोही उज्जूभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ” ऋजु अर्थात् सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है। श्रमण धर्म हो या श्रावक धर्म, दोनों प्रकार के धर्म सरलता से प्रतिष्ठित होते हैं। हृदय की वक्रता ही बुद्धि में जड़ता पैदा करती है और जिनकी बुद्धि जड़ और हृदय वक्र होता है, वे धर्म के पात्र नहीं होते। श्रमण शुद्ध होता है, सरल होता है। वह किसी पाप-अपराध-स्खलना को छुपाता नहीं है। छद्मस्थ अवस्था में गुण-दोषों का हो जाना संभव है, किन्तु सरल हृदय श्रमण उसकी आलोचना, निंदा, गर्दा करके अपनी आत्मा को उन पापों तथा दुष्कृत्यों से अलग करता है। उत्तराध्ययन में कहा है-“अविसंवायणसम्पन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवई” दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक है। श्रमण की साधना में स्थिरता, प्रगतिशीलता एवं विशुद्धता कब आती है? जब वह सरलतापूर्वक अपने जीवन में जागरूक रहता है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का बीसवाँ लक्षण है- 'अनियाणे।' पौद्गलिक (भौतिक) सुखों की प्राप्ति के लिए कभी निदान यानी फलाशंसा न करने वाला श्रमण होता है। उत्तराध्ययन में कहा है-“सायासोक्खेसु रज्जमाणा विरज्जइ” वस्तुतः धर्म पर श्रद्धा होने पर श्रमण साता और सुख की आसक्ति से विरक्त हो जाता है। इस विरक्ति में कभी न्यूनता आ जाये तो प्रभु फरमाते हैं- “सव्वे कामा दुहावहा" सभी काम-भोग अन्ततः दुःखावह ही होते हैं। इस चिन्तन को सन्मुख रखकर ही श्रमण किसी भी तरह की फलाशंसा न करे। फलाशंसा के चक्रव्यूह में उलझने वाले श्रमण की दृष्टि प्रवृत्ति पर नहीं, परिणाम पर टिकी रहती है, जबकि श्रमण को निष्काम भाव से अपनी प्रवृत्ति के लिए समर्पित रहना चाहिए। शास्त्रकार कहते हैं-“कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं" कामनाओं की पूर्ति की लालसा में प्राणी एक दिन उन्हें बिना भोगे दुर्गति में चला जाता है। फलाशंसा दुष्पूर नदी के समान है। श्रमण अनासक्त होकर जीता है। वह मिट्टी के सूखे गोले के समान कहीं भी चिपकता नहीं। उत्तराध्ययन में कहा- “विरत्ता हुन लग्गति जहा से सुक्कगोलए" अर्थात् मिट्टी के सूखे गोले के समान साधक विरक्त होता है। वह कहीं भी चिपकता नहीं है और न उसके रागरहित भावों से कर्मबंधन ही होता है। आचारांग में कहा है- “तुमं चेव सल्लमाहटुं" अर्थात् निदान तेरे लिए शल्य यानी कांटा है। इस कांटे को उत्पन्न ही न होने दे। जो इस कांटे से मुक्त है, वह सुखी है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का इक्कीसवाँ लक्षण है-'अप्पुस्सुए' पौद्गलिक वस्तुओं के प्रति उत्सुकता न रखने वाला श्रमण होता है। आन्तरिक सद्गुणों का जितना विकास होता है, उतना आत्मिक आह्लाद बढ़ता जाता है। फिर बाहरी कुतूहल/कौतुकता की ओर उत्सुकता घटती जाती है। राग का त्याग श्रमणत्व का अलंकार है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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