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________________ | 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी ] श्रमण का चौदहवाँ लक्षण है- 'चाई' अर्थात् त्यागी। श्रमण का जीवन त्याग का मूर्त रूप होता है। वे कष्टों में घबराते नहीं। धैर्य से उन कष्टों को सहन कर अपने त्याग-पथ पर आगे बढ़ते हैं। श्रमण जीवन विवशता, परवशता या परतन्त्रता से ग्रहण नहीं किया जाता। श्रमण का त्याग स्ववश और स्वतन्त्रता के साथ होता है। दशवैकालिक सूत्र के दूसरे अध्ययन में कहा गया है- “अच्छंदाजे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ।" जो पराधीनता के कारण विषय भोगों का उपभोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता। फिर त्यागी कौन? इस सवाल का जवाब इससे अगली गाथा में दिया गया जेय कंते पिट भोट, लढे वि पिठ्ठिकुव्वइ। साहीणे चयइ भोट, से हु चाइत्ति वुच्चई।। जो मनोहर और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनता से यानी स्वेच्छापूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है- त्याग देता है; वस्तुतः वही त्यागी कहलाता है। श्रमण ऐसे ही त्यागी होते हैं। आचारांग में कहा है-"तं परिण्णाय मेहावी, इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासि पमाएणं" मेधावी श्रमण आत्मज्ञान के द्वारा यह निश्चय कर लेता है कि मैंने पूर्व जीवन में प्रमादवश जो कुछ भूलें की हैं, वे अब कभी नहीं करूँगा। इस प्रतिज्ञा के साथ श्रमण आजीवन चलते हैं और जीवनयात्रा में आने वाले अनुकूल-प्रतिकूल कष्ट-संकट-प्रसंगों में धैर्य धारण करते हैं, क्योंकि वे श्रमण"अंतरं च खलु इमं संपेहाए धीरो मुहुत्तमवि णो पमायए" अर्थात् अनन्त जीवनप्रवाह में मानव-जीवन को बीच का एक सुअवसर जानकर धैर्य गुण सम्पन्न होकर वे श्रमण मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद नहीं करते। प्रमाद के त्यागी श्रमण ही सच्चे श्रमण कहलाते हैं। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान श्रमण का पन्द्रहवाँ लक्षण है- 'लज्जू'। श्रमण लज्जावान होता है। कल्याण के इच्छुक साधक लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य में स्वयं को प्रतिष्ठित करते हैं। पाप के प्रति सलज्ज श्रमण दुःख से बचता है और अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है। आचारांग में कहा है-“लज्जमाणा पुढो पासे” हे श्रमण, तू उन व्यक्तियों को देख जो अधर्म करते हुए भी लज्जित नहीं होते। निर्लज्ज व्यक्ति दम्भी होते हैं। आचारांग नियुक्ति में कहा है-“न हु कइतवे समणो" जो दम्भी है, वह श्रमण नहीं हो सकता। श्रमण निर्दम्भ होते हैं। वे कभी अपनी क्रियाओं का न दम्भ करते हैं, न प्रदर्शन। वे सरल, विनम्र और लज्जावान होते हैं। वे ज्ञानपूर्वक अपनी साधना और संयम में रत रहते हैं। ऐसे श्रमण भावश्रमण कहलाते हैं। उत्तराध्ययन नियुक्ति में उक्त है"नाणी संजम सहिओ, नायव्वो भावओ समणो।" हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। ___ श्रमण का सोलहवाँ लक्षण है-'धण्णे' अर्थात् संयम साधना में कृतार्थता-धन्यता का अनुभव करने वाला श्रमण होता है। जीवन में कषायों का शमन इन्द्रियों का दमन, विषयों का वमन होता है, तब ही संयम में रमण होता है। सूत्र आचारांग में कहा है-“एस वीरे पसंसिए जे ण णिविज्जइ आराहणाए" जो अपनी साधना में उद्विग्न नहीं होता, वही वीर श्रमण प्रशंसित होता है। सकारात्मक चिन्तन ही असन्तुष्टि और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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