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________________ 196 196 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || श्रमण का ग्यारहवाँ लक्षण है-“मणगुत्ते" अशुभ मन का निरोध करना श्रमण की मनोगुप्ति है। मनोगुप्ति से ही अशुभताओं का वर्जन होता है और चित्त की निर्मलता प्राप्त होती है। दशाश्रुतस्कंध के अनुसार “णेमचित्तं समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ' निर्मल चित्त वाला श्रमण संसार में पुनः पुनः जन्म नहीं लेता और निर्मल चित्त वाला ही ध्यान की सही स्थिति को प्राप्त करता है। दशाश्रुतस्कंध 5/1 के अनुसार "ओयं चित्तं समादाय, झाणं समुप्पज्जइ। धम्मे हिओ अविमणे, णिव्वाणमभिगच्छइ॥" चित्तवृत्ति के निर्मल होने पर ही ध्यान की सही अवस्था प्राप्त होती है। जो बिना किसी विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म में स्थित है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। मनोगुप्त श्रमण के संकल्प-विकल्पों के आँधी-तूफान थम जाते हैं और निराकुलता में आनन्दानुभूति होने लगती है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का बारहवाँ लक्षण है-“वयगुत्ते" अशुभ वचनों का निरोध करने वाला श्रमण है। वचनगुप्ति से निर्विचारता का विकास होता है। निर्विचारता से निर्विकारता बढ़ती है और वीतरागता निकट होती है। बोलने वाला कभी-कभी बोलकर अनेक प्रकार की उलझनें बढ़ा लेता है, जबकि वचनगुप्ति रखकर मौनी उन प्राप्त उलझनों को सुलझा लेता है। बोलना समस्या है तो मौन रखना समाधान है। स्थानांग सूत्र में कहा है“इमाई छ अवयणाई नो वदित्तए-अलीगवयणे, हीलियवयणे, खिसितवयणे, फरुसवयणे, गारत्थिय वयणे, विउसविंतं वा पुणो उदीरित्तए (स्थानांग 6/3) छह तरह के वचन, नहीं बोलने चाहिए- असत्य वचन, तिरस्कार युक्त वचन, झिड़कते हुए वचन, कठोर वचन, साधारण मानवों की तरह अविचार पूर्ण वचन और शांत हो चुके कलह को फिर से भड़काने वाले वचन। श्रमण इस तरह के वचनों को न बोले। ऐसा श्रमण वचन गुप्ति की साधना करता है। विचारपूर्वक सुंदर और परिमित शब्द बोलने वाला सज्जनों में प्रशंसा प्राप्त करता है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। __ श्रमण का तेरहवाँ लक्षण है-“कायगुत्ते" अशुभ कायिक प्रवृत्तियों का निरोध करने वाला श्रमण होता है। अपनी काया जब-जब भी पाप-प्रवृत्ति की ओर अभिमुख हो, तब श्रमण उस काया का संगोपन करते हैं।सूत्रकृतांग में कहा है जहा कुम्मे सगाई, सट देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अज्झयेण समाहरे।। कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अंदर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही मेधावी श्रमण भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुखी होकर अपने को पाप-प्रवृत्तियों से सुरक्षित रखे। भगवती में कहा है“भोगी भोगे परिच्चयमाणे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवई” अर्थात् भोग का सामर्थ्य होने पर भी जो कायिक भोगों का परित्याग करता है, वह कर्मों की महती निर्जरा करता है। उसे मुक्ति रूप महाफल की प्राप्ति होती है। “देहदुक्खं महाफलं" की आदर्श अवधारणा को सन्मुख रखकर श्रमण अपने देह के दुःखों को समभावसे भोगकर मोक्षरूपी महाफल की प्राप्ति करते हैं। हे श्रमण! इस अर्थ में तूसचमुच में महान है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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