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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || अणिस्सिया' अर्थात् आत्मद्रष्टा श्रमण मधुकर के समान होते हैं। वे कहीं किसी एक वस्तु या व्यक्ति से प्रतिबद्ध नहीं होते। जहाँ रस-गुण यानी जीवन-निर्वाह के लिए एषणीय आहार मिलता है, वहीं से ग्रहण कर लेते हैं। बृहत्कल्प भाष्य की 1331 वीं गाथा में कहा है
अप्पाहारस्स न इंदियाई विसटसु संपत्तन्ति ।
नेव विलम्मई तवसा, रसिटसुन सज्जए यावि।। जो अल्पाहारी होता है, उसकी इन्द्रियाँ विषयभोग की ओर नहीं दौड़तीं, तप का प्रसंग आने पर वह क्लांत नहीं होता और न ही सरस आहार में आसक्त होता है। इसी तरह निशीथभाष्य 4154 में कहा है
मोक्ख पसाहण हेउ, णाणादि तप्पसाहणो देहो।
देहट्ठा आहारो तेण तु कालो अणुण्णाओ।। वैसे ज्ञानादि मोक्ष के साधन हैं, परन्तु उन ज्ञानादि को साधने में देह ही सहायक है। देह का साधन आहार है, अतः श्रमण साधक को समयानुकूल आहार करने की अनुज्ञा दी गई है। परन्तु सच्चा साधक “नाइमत्त पाणभोयण- भोई से णिग्गंथे' (आचारांग) आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है। ऐसा ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा श्रमण निर्ग्रन्थ है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान् है!!
श्रमण का छठा लक्षण है-“आयाणभंडनिक्खेवणासमिए।" श्रमण अपनी निश्रा में रहे हुए वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को लेने, रखने, उठाने में पूर्ण विवेक रखे, क्योंकि “विवेगे धम्ममाहु" प्रभु ने विवेक में ही धर्म कहा है। अयतना से रखना, उठाना, लेना-देना आदि जीव-विराधना के साथ आत्मविराधना का भी कारण बन सकता है। श्रमण की हर क्रिया अहिंसा को केन्द्र में रखकर होती है। दैनंदिन व्यवहार में अहिंसा का दीप प्रज्वलित रहना चाहिए, ताकि जीव विराधना से बचा जा सके। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान
श्रमण का सातवाँ लक्षण है-“उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपरिट्ठावणिया-समिए।" अर्थात् श्रमण उच्चारादि परिष्ठापन योग्य वस्तुओं के परिष्ठापन में विवेक रखे। अविवेवक से किया गया कार्य अशोभनीय होता ही है, और जिनशासन की अवहेलना करने वाला भी बन जाता है। अतः श्रमण को शुद्धाचार का पालक, पोषक एवं संरक्षक बनकर अपनी हर प्रवृत्ति को संयम की परिधि में ही सम्पन्न करना चा "अप्पा हु खलु सययं रक्खिअव्वो” अपनी आत्मा को पापों से सतत बचाये रखना चाहिए। कहा गया है"भावे य असंजमोसत्थं" भावदृष्टि से संसार में असंयम ही सबसे बड़ा शस्त्र है। संयम अशस्त्र है और असंयम शस्त्र है। जो एक असंयम से बचता है वह सारे शस्त्रों से बच जाता है। हे श्रमण ! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है।
श्रमण का आठवाँ लक्षण है-"मणसमिए" श्रमण अपने मन को सदा शुभ भावों में प्रवृत्त रखे।
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