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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 193 दृष्टि से सभी जीव समान हैं । यह अद्वैत भावना ही श्रमण के अहिंसक या अनारम्भक होने की मूलाधार है । हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है ॥ श्रमण का दूसरा लक्षण है- 'अपरिग्गहो ।' किसी भी प्रकार का संग्रह या ममत्व न रखने वाला श्रमण होता है। श्रमण अधिक मिलने पर संग्रह न करे, क्योंकि संग्रह संघर्ष का कारण बनता है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है-“परिग्गह-निविट्ठाणं वेरं तेसिं पवड्ढइ” जो संग्रहवृत्ति में फँसे हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं और फिर “आरम्भपूर्वको परिग्रहः” परिग्रह बिना आरम्भ और हिंसा के नहीं होता। हिंसा और परिग्रह का कार्य-कारण सम्बन्ध है | श्रमण के लिए प्रभु दशवैकालिक सूत्र में फरमाते हैं- 'जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह श्रमण नहीं; श्रमण के वेश में गृहस्थ ही होता है" इसलिए श्रमण को अपरिग्रह भावना से संवृत होकर लोक में विचरण करना चाहिए । इच्छामुक्ति की साधना श्रमण जीवन की विशिष्ट साधना है, जो अपरिग्रही बनने से पूर्ण होती है। हे श्रमण ! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है । श्रमण का तीसरा लक्षण है - 'इरियासमिए ।' चलना जीवन व्यवहार की आवश्यक क्रिया है। इस क्रिया को श्रमण जागरूकता पूर्वक सम्पन्न करता है। प्रश्न पूछा गया - 'कहं चरे ?' अर्थात् कैसे चलें, जिससे पाप कर्म का बंधन न हो। इसका उत्तर दिया गया- 'जयं जरे' अर्थात् जागरूकता के साथ चलें। जागरूकता ही अप्रमत्तता की प्रतीक है । आचारांग में कहा है- “जे पमत्ते गुणट्ठिए से हु दंडेत्ति पवुच्चइ" जो विषयासक्त है, वह निश्चय ही जीवों को दण्ड (पीड़ा) देने वाला है। श्रमण जागरूक होता है इसलिए वह ज्ञान दर्शन - चारित्र की विशुद्धता से चले अथवा उसके लिए प्रयत्नशील रहे । है श्रमण ! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का चौथा लक्षण है - 'भासासमिए ।' श्रमण बोलते समय सत्य-असत्य, निर्दोष- सदोष, सावद्य-निरवद्य वचनों का पूर्ण विवेक रखकर बोले । हिंसा - द्वेष-क्लेश एवं निश्चयात्मक वचन न बोले । आचारांग सूत्र में कहा- “अणु-वीइभासी से निग्गंथे” जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ- श्रमण है। इसी तरह “वइज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं” बुद्धिमान ऐसी भाषा बोले जो हितकारी हो और अनुलोम हो यानी सभी को प्रियकारी हो । आत्मवान श्रमण दृष्ट- अनुभूत, परिमित, संदेहरहित, परिपूर्ण (अधूरी, कटीछँटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे, क्योंकि भाषा ही भावों का दर्पण होती है, किन्तु यह ध्यान रहे कि वह वाणी वाचालता से रहित हो तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो। हे श्रमण ! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है । श्रमण का पाँचवाँ लक्षण है- "एसणासमिए ।" आहार, वस्त्र पात्रादि ग्रहण करने तथा उनका उपयोग करने में निर्दोषता का विवेक रखे । “आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं " श्रमण आहार की इच्छा करे, क्योंकि आहार शरीर का आधार है। किन्तु वह आहार कैसा हो? वह आहार मित और एषणीय हो । एषणीय आहार जीवन यात्रा और संयमयात्रा में सहयोगी होता है। परिमित और एषणीय आहार से न किसी प्रकार का विभ्रम पैदा होता है और न धर्म की भ्रंशना । दशवैकालिक सूत्र में कहा है- “महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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