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________________ 185 | 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी 2. समागत प्रतिकूलता को हँसते-हँसते सहन कर लेना। ये दोनों शक्तियाँ समभाव की पराकाष्ठा पर लब्ध होती हैं अर्थात् सामायिक की सम्यक् साधना करने वाले साधक को प्राप्त होती हैं। जब आप विधि सहित सामायिक की साधना करेंगे तभी इसकी प्राप्ति होगी। आपको सामायिक करते-करते कितने वर्ष हो गये हैं? लेकिन आप सामायिक को कितना समझ पाते हैं? संख्या में सैकड़ों-हजारों सामायिक हो गई हैं। लेकिन सामायिक का स्वरूप क्या है, उसकी विधि क्या है? इसकी आराधना में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की शुद्धता कितनी रही है? क्या आपके कुछ ध्यान में आया है? सन्त-सतीगण जब भी सामायिक की प्रेरणा करते हैं तो उनके प्रति श्रद्धा और विनय होने से आप सामायिक कर लेते हैं। कई वर्षों से कर भी रहे हैं और उस सामायिक को स्मरण-भजन-स्वाध्याय के माध्यम से पूरा कर, सामायिक हो गई, ऐसी सन्तुष्टि कर लेते हैं। किन्तु समता की गहराई में जाकर अनुप्रेक्षा के माध्यम से सार निकालने का काम नहीं करते। सामायिक समता का वह सरोवर है, जिसके पास बैठने वाला भी शीतलता का अनुभव करता है, मानसिक शांति के आभास की प्रतीति करता है। सामायिक करने वाला बोले या न बोले, पास बैठने वालों को अनुभव हो कि हमें भी ऐसी ही शांति चाहिये। वीतराग, सर्वज्ञ, सामायिक साधक भगवन्तों के चरणों में बैठने वाले अपना वैर विरोध तक भूल जाते हैं। यह तभी संभव है, जब इसका मर्म समझकर शुद्धि सहित सामायिक की जाय। शास्त्र का वचन है-“ते साहुणो जे समयं चरंति' अर्थात् साधु वे हैं- जो क्षमा, सहनशीलता, समता का आचरण करते हैं। विश्व के किसी भी देश और प्रान्त में- चाहे अमेरिका, इंगलैण्ड, कर्नाटक, महाराष्ट्र हो, किसी भी वेष में- भगवा कपड़ा, लंगोटी, श्वेत वस्त्र, नग्नता लिये हो, किसी भी मत या पंथ में- चाहे शैव, रामानुज, बौद्ध, जैन, पारसी हो, किसी भी अवस्था में- बाल, युवा या वृद्ध हो, किसी भी वर्ण में- चाहे ब्राह्मण,क्षत्रिय, ओसवाल, पोरवाल हो; उन सबकी पहचान, परख, कसौटी मात्र एक है कि-वे सब समता के सागर हों। समता को प्राप्त करने के लिये सामायिक की साधना आवश्यक है। सामायिक की सम्यक् आराधना के लिए चार शुद्धियाँ बताई गई हैं- जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के नाम से जानी जाती हैं। उनको क्रम से समझना, जानना, उपयोग पूर्वक आचरित करना, साधक के लिये आवश्यक है। द्रव्यशुद्धि __ सामायिक की आराधना में द्रव्यतः साधन औदारिक शरीर है, जो आपको मिला हुआ है। शरीर की शुद्धि का अर्थ नहा-धोकर उसे साफ-सुथरा, सजावट कर रखना नहीं, अपितु सभ्यता एवं विवेक के साथ बैठना, स्थिर रखना, अनावश्यक हलन-चलन नहीं करना है। इससे काया के कुआसन आदि 12 दोष टाले जाते हैं। द्रव्य का दूसरा आशय है- बाहरी पदार्थ अर्थात् नीचे पहनने का चोल पट्टा, धोती, लूंगी, ओढ़ने का दुपट्टा, चद्दर, कम्बल आदि। जहाँ तक हो सके- पेन्ट, पाजामा, सिले हुए ऐसे वस्त्र जिनका प्रतिलेखन सहजता से नहीं हो सके, काम में नहीं लेना चाहिये। बैठका, मुँहपत्ती, पूंजनी, माला, पुस्तक आदि सामायिक के द्रव्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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