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10 जनवरी 2011
चाहिए ।
जिनवाणी
साधक स्वयं में निर्दोष रहे तब भी संगदोष से जनमन में अविश्वास का कारण बन सकता है।
इसलिए नीति में कहा है
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" यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयं नाचरणीयम् ।”
उत्तराध्ययन सूत्र में बतलाया गया है कि लोहकार की शाला, खान, दो घर की सन्धि और राजमार्ग में कहीं भी अकेला साधक, नारी के साथ न खड़ा रहे और न बात ही करे। शास्त्राज्ञा की अवहेलना करने वाले कभी-कभी अच्छे-अच्छे विद्वान भी ठगे जाते हैं। भगवान महावीर ने साधक के ज्ञानभाव को जगाकर, अशुचि भावना से उसके मन में विषयों के प्रति घृणा उत्पन्न की, तन की नश्वरता से वैराग्य उत्पन्न किया और आत्मज्ञान से बाह्य रंगरूप की ओर उपरति बढ़ाई। इतना सब करके भी उन्होंने साधक को ज्ञान भाव के नाम से असुरक्षित नहीं छोड़ा। स्थूलभद्र और सेठ सुदर्शन के आदर्श की तरह उनके सामने रथनेमि एवं सिंह गुफावासी मुनि के उदाहरण भी थे।
एकान्त में स्त्री का निमित्त पाकर ही रथनेमि जैसे विशिष्ट त्यागी भी विचलित हो गये । अतः शास्त्रकार ने स्पष्ट कहा है कि जहाँ विकारी वातावरण हो, स्त्री-पुरुषों के कलह कोलाहल कर्णगोचर हों, स्त्रियों का बार-बार आना जाना हो वहाँ मत ठहरो । “विवित्ता य भवे सिज्जा" साधक के लिये निर्दोष एकान्त शय्या होनी चाहिये। आज के सघन आबादी वाले नगरों में जहाँ घरों के बीच उपाश्रय होता है, पूर्ण शान्तता नहीं रहती। बहुत से उपाश्रयों के सामने गृहस्थ के खाने-पीने एवं सोने बैठने के स्थान खुले दिखते हैं। सचमुच आज के वसतिवास में इन दोषों से बचना कठिन हो गया है।
फिर भी संयमधारियों को आत्म-रक्षण करना है तो धर्म-स्थान में सेवा के नाम पर स्त्रियों को बिठाना अनावश्यक संसर्ग है । प्रवचन और शास्त्रकथा के अतिरिक्त साधुओं के यहाँ स्त्रियों के अधिक समय तक रहने से ज्ञान-ध्यान में विक्षेप और चंचलता का कारण होता है।
कुछ लोगों का खयाल है कि स्त्रियों को समझाने से काफी काम हो सकता है, कारण किसा परिवार ही उनसे प्रभावित रहता है। अतः साधुओं को उन्हें बोध देना आवश्यक है। ठीक है, उनकी भावुकता और धर्म परायणता योग्य मार्गदर्शन पाकर अवश्य काम कर सकती है, किन्तु साधकों को ध्यान रखना चाहिये कि हमको लेने के कहीं देने न पड़ जाय । वे ज्ञान देने के बदले कहीं अपना ज्ञान न गंवा बैठें। इसलिये आवश्यक शिक्षा और उपदेश भी प्रवचन के समय ही देना चाहिये । एकान्त या व्यक्तिगत शिक्षा तो सर्वथा ही अकल्याणकर है।
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साधुओं को ज्ञान-ध्यान में बाधा न हो, इसलिये जिज्ञासा वाली माताओं को भी अपना अभ्या सतियों के पास ही करना चाहिये । कोई खास शंका-स्थल हो या किसी विशेष को समझना हो तो व्याख्यान चौपी के पश्चात् समझ लेना, पर असमय में अमर्यादित बैठे रहना उचित नहीं । स्त्री - संसर्ग से संयम का तेज क्षीण होता है, इसलिये आत्मार्थी के लिये यह हलाहल विष है।
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