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________________ 176 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | नियमों में स्त्री वाले घर में रहना, एक साथ बैठना, स्त्रियों में कथा करना, सराग दृष्टि से देखना, स्त्रियों के रूप सौंदर्य और वेशभूषा की कथा करना, विकारी शब्द सुनना, पूर्व क्रीड़ा का स्मरण करना आदि के त्यागरूप नियम स्त्री-पुरुष के संसर्ग की सीमा निर्धारित करते हैं। कल्याणार्थी का सत्संग, सभा और प्रवचन करने के अतिरिक्त जितना शक्य हो, स्त्री-संग से बचते रहना चाहिये। स्त्रियों में बैठकर भजन गाना, सिखाना, पढ़ाना या धर्म-उपदेश के नाम से अमर्यादित बैठे रहना हितकर नहीं है। दशवैकालिक सूत्र के आठवें आचार प्रणिधि अध्याय में कहा है कि “मुर्गे के बच्चे को जैसे बिल्ली से सदा भय बना रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी को भी सदा स्त्री के देह से भय रहना चाहिये।" इसी शास्त्र में कहा है कि चित्रमय भित्ति अथवा अलंकृत नारी को कभी नहीं देखे। कदाचित् कभी दृष्टि गिर ही जाय तो जैसे सूर्य को देखकर नजर खींच ली जाती है वैसे ही दृष्टि को खींच लो। फिर कहते हैं जिसके हाथ पैर टूट गये और नाक काट ली गयी हो वैसी शतायु वृद्धा हो तब भी संयमी पुरुष नारी का संग न करे। किसी बुद्धिवादी शिष्य ने पूछा- “महाराज! इतने कठोर नियमों के बंधनों में बांधने की अपेक्षा तो शिष्य का ज्ञानभाव ही ऐसा क्यों न जागृत कर दिया जाय कि कहीं जाओ और किसी के संग रहो जैसी शंका करने की आवश्यकता ही नहीं रहे। जब योग्य समझकर शिष्य बना लिया, तब फिर इतना अविश्वास क्यों? धर्म का पालन तो मन से होगा, बाहर से दबाव से उन्हें कहाँ तक रखोगे?" उत्तर देते हुए गुरु ने कहा- “ठीक है, ज्ञानभाव जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है और उसके लिये निरंतर शास्त्र-वाचन और चिन्तन से प्रेरणा दी जाती है। फिर भी सबका क्षयोपशम समान नहीं होता। सिंह गुफा वासी मुनि की तरह उसमें दुर्बल मनोबल वाले साधक भी होते हैं। परम त्यागी मुनि नंदीषेण की तरह कभी ज्ञानी भी मोह के चक्र में आ जाते हैं। इसलिये अंतरंग की तरह कुछ बाह्य नियम भी सुरक्षा और व्यवहार के लिये आवश्यक माने गये हैं। जितेन्द्रिय ज्ञानी के लिये भी व्यवस्था की दृष्टि से उन बाह्य नियमों का पालन आवश्यक होता है। कहा भी है- “स्त्रियों के रूप को नहीं देखना, नहीं चाहना, नहीं सोचना और कीर्तन नहीं करना, यह आर्यजनों के ध्यानयोग्य व्यवहार ब्रह्मवती के लिए सदा हितकर होता है।" जितेन्द्रिय साधक तीन गुप्तियों से गुप्त होकर सुसज्जित देवियों के द्वारा भी विचलित नहीं होता, इतना उसमें सामर्थ्य है, फिर भी वीतराग प्रभु ने एकान्त हितकर मानकर मुनियों के लिये विविक्त एकान्तवास प्रशस्त कहा है विवित्तवासा मुणीणं पसत्थो ।। - उत्तरा. 32.16 मनुष्य की मनःस्थिति सदा एक सी नहीं रही। न मालूम किस समय मोह का उदय हो जाय और ज्ञान की पतवार हाथ से छूट जाय, इसलिए संयमी स्त्री-पुरुष को सदा अप्रमत्त एवं विषयसंग से दूर रहना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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