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| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी अर्थ दोनों जैसा गुरु महाराज से सुना हो उसी प्रकार कहे। अतः गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान विनीत शिष्य को उदार भाव से दे। 4. समर्पण- अन्तिम महत्त्वपूर्ण और उपर्युक्त तीन सूत्रों का आधार है- समर्पण। समर्पण शब्द की व्याख्या करें तो स-समान, म-मन (इच्छा), र-रहित, प-प्राथमिक, ण-णाण (ज्ञान) अर्थात् ज्ञान (समझ) पूर्वक प्राथमिक रूप से इच्छा रहित होना ही समर्पण है। हमारे पूज्य के प्रति सर्वसमर्पण होना चाहिए। अंध-समर्पण तो आज बहुतों में देखा जा सकता है, लेकिन सम्यक् समर्पण बहुत कम देखा जाता है। सच्चे समर्पण की पहली शर्त है ज्ञान (समझ पूर्वक) सहित समर्पण होना चाहिए, कुछ का ज्ञान सहित समर्पण हो सकता है, लेकिन जो हमारे अनुकूल हो वह स्वीकार है, जो हमारे प्रतिकूल है उसे हम अस्वीकार कर देते हैं, अतः ऐसा समर्पण भी पूर्ण समर्पण नहीं है। अतः समर्पण की दूसरी शर्त है समान रूप से अर्थात् सभी भावों में सभी परिस्थितियों में समर्पण होना चाहिए, तभी समर्पण को वास्तविक समर्पण कहा जायेगा। अतः हमारा भी गुरु के प्रति सर्वतोभावेन समर्पण होना चाहिए। समर्पण ही विकास के द्वार खोलता है या यूँ कहें कि उन्नति की प्रथम सीढ़ी समर्पण है।
इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित चार सूत्र भाव रूप हैं। वैसे तो जैन दर्शन का मूलाधार भाव ही है, लेकिन जब भावों के साथ-साथ द्रव्य और मिल जाता है तो वह भाव व्यवहार में प्रेरणास्पद बन जाता है। अतः इन चार भाव सूत्रों के साथ द्रव्य रूप जो पाँच अभिगम हैं उनका भी पूर्णतया गुरु चरणों में जाते समय पालन करना है, वे इस प्रकार हैं- 1. सचित्त त्याग 2. अचित्त विवेक 3. उत्तरासंग 4. कर जोड़ (हाथ जोड़ना/वंदना) 5. मन की एकाग्रता। अतः इन पाँचों का पालन करना चाहिए/ध्यान रखना चाहिए। उपसंहार- गुरु के पास जब भी जायें तब उपर्युक्त चार भाव सूत्रों के साथ द्रव्य रूप पाँच अभिगम का पूर्णतया पालन हो तो निश्चय ही वह गुरु-सान्निध्य हमारे भव-भ्रमण के दुःख को मिटाने वाला होगा। गुरु के सान्निध्य से हम क्या कुछ प्राप्त नहीं कर सकते हैं। कहा है
गुरु बिन शान ने उपजै, गुरु बिन मिले न मोक्ष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ।। -द्वारा श्री नोरतमल जी जैन (नाहर), गिल्स मेडिकल, सनातन स्कूल के पास, ब्यावर-305901
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