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________________ 166 166 | जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || 2. नम्रता- नम्रता अर्थात् विनय। विनय का अर्थ है - वि-विकास, न-नवीन, य-याद (ज्ञान) अर्थात् जिसके माध्यम से नवीन रूप में ज्ञान (याद/स्मृति) सहित विकास होता है उसे विनय कहते हैं। जिज्ञासा का समाधान जीव को स्व में स्थिर करता है और समाधान कर्ता के प्रति मन में नम्रता का भाव उत्पन्न होता है। विनय वह गुण है जिसकी तुलना में अन्य गुणों का कोई मूल्य नहीं है। महापुरुषों ने फरमाया है कि जिसके जीवन में विनय है उसने कुछ भी प्राप्त नहीं करते हुए भी जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लिया है और जिसके जीवन में विनय नहीं है उसने सब कुछ प्राप्त कर के भी जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। कहा भी है बड़ों की नज़र ही दौलत है। गुरुकृपा प्राप्त करने वाला सब कुछ पा जाता है। विनयी की परिभाषा भगवान् ने उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 1 में इस प्रकार बताई है आणाणिद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए । इंगियागार संपण्णे, से विणीट ति वुच्चइ ।।2।। भावार्थ - गुरु आज्ञा को स्वीकार करने वाला, गुरुजनों के समीप रहने वाला, इंगित और आकार से गुरु के भाव को समझने वाला साधु विनीत कहा जाता है। यह नियम हम गृहस्थों के लिए भी लागू होता है। यह गुण हममें होंगे तभी हम विनयी की श्रेणी में होंगे। गुरु के प्रति सदैव विनयी रहें और साथ ही 14 प्रकार की वस्तुओं को निर्दोषरीति से दान देकर गुरु की सेवा का लाभ लें। भगवान् ने सेवा का फल उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29 में इस प्रकार फरमाया हैवेयावच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ? प्रश्न - हे भगवन्! वैयावृत्त्य करने से जीव को क्या लाभ होता है? वेयावच्चेणं तित्थयर-णामगोयं कम्मणिबंधई ।।43 ।। उत्तर - वैयावृत्त्य करने से तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का बन्ध करता है। वैयावृत्त्य का अर्थ है - निःस्वार्थ भाव से गुणिजनों तथा स्थविर आदि मुनियों की आहार आदि से यथोचित सेवा करना। आचार्य आदि दस की उत्कृष्ट भाव से सेवाभक्ति - वैयावृत्त्य करता हुआ जीव उत्कृष्ट रसायन आने पर तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का उपार्जन करता है। यह तो सेवा का उत्कृष्ट फल है साथ ही सेवा से अन्य लाभ होते हैं, इस बात को इसी अध्ययन में भगवान् ने इस प्रकार बताया है गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं अंते! जीवे किं जणयह? प्रश्न - हे भगवन्! गुरुजनों तथा साधर्मियों की सेवा शुश्रूषा करने से जीव को क्या लाभ होता है? गुरुसाहम्मिय-सुस्सूसणयाए णं विणयपडिवर्ति जणयह, विणयपडिवण्णे य णं जीवे अणच्चासायणसीले णेरइय-तिरिक्ख-जोणिय-मणुस्स-देव-दुग्गईओ णिरंभइ, वण्णसंजलण-भति-बहु-माणयाए मणुस्सदेवसुग्गईओ णिबंधई, सिद्धिसोग्गई च विसोहेइ, पसत्थाइं च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाइं साहेइ, अण्णे य बहवे जीवा विणइत्ता भवई||4|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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