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________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी 165 भावार्थ - जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने पर महाऋद्धि वाला वह मृगापुत्र अपने पूर्व-जन्म को और पूर्वजन्म में पालन किये हुए साधुपन का स्मरण करने लगा। साधुपने का स्मरण होते ही उन्हें विषयों से विरक्ति हो गई और माता-पिता से संयम को आज्ञा लेकर संयम ग्रहण कर लिया। मात्र दर्शन से ही कुछ पलों में जीवन का लक्ष्य बदल गया। भोगों की विरासत विरक्ति में बदल गई। जहाँ संसार की वृद्धि हो रही थी वहीं कुछ पलों में संसार-मुक्ति का उपक्रम शुरु हो गया। अतः गुरु-वन्दन का महत्त्व अवर्णनीय है। लेकिन प्रायः आज यह देखा जाता है कि इस परम्परा का मात्र निर्वहन हो रहा है। गुरु के पास जाते समय जो अहो भाव/पूज्य भाव हमारे अन्तर में होना चाहिए, उसकी रिक्तता हमारे व्यवहार में देखी जा रही है। उसी रिक्तता के कारण हम सद्गुरु की संगति का पूरा लाभ नहीं उठा सकते हैं। गुरु के पास जाते समय जो अहोभाव होना चाहिए उस अहोभाव को उत्पन्न करने के लिए महापुरुषों ने चार सूत्र दिए हैं- 1. जिज्ञासा 2. नम्रता 3. शिष्यत्व 4. समर्पण। 1. जिज्ञासा- जिज्ञासा का अर्थ है- जि-जिनेश्वर के ज्ञा-ज्ञान की सु-सूचना अर्थात् जिससे जिनेश्वर के ज्ञान की सूचना हो उसे जिज्ञासा कहते हैं। गुरु चरण का हमें पूरा लाभ लेना है तो हमें जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि के सम्बन्ध में, संसार की विचित्रता के सम्बन्ध में जैसे एक प्राणी सुखी तो दूसरा दुःखी क्यों है....इत्यादि कई प्रकार की जिज्ञासाएं हो सकती हैं। इन जिज्ञासाओं का गुरु चरणों में समाधान प्राप्त करें। समाधान से समाधि प्राप्त होती है, जिज्ञासा के कारण अधिक से अधिक समय गुरु चरणों में व्यतीत होगा। उस समय में महापुरुषों के विशुद्ध पुद्गलों से जो शांति का अनुभव होगा वह अकथनीय है, जिज्ञासा के लिए चिन्तन आवश्यक है। ज्यों-ज्यों हमारा चिन्तन बढ़ेगा, त्यों-त्यों जिज्ञासा जगेगी, जिज्ञासा के समाधान के लिए गुरु-सान्निध्य को प्राप्त करना होगा। अतः गुरु-सान्निध्य का पूरा लाभ लेना है तो हमें जिज्ञासु होना चाहिए। अनेक बार देखा गया है कि वास्तविक रूप में कुछ नहीं होता है, पर मानव-मन मात्र भ्रमणा के कारण दुःखी होता है और मन ही मन कुंठित होता रहता है। लेकिन जिज्ञासु होने पर गुरु चरण में जिज्ञासा रखने पर जो समाधान प्राप्त होगा उससे अलौकिक शांति की अनुभूति होगी। मानव को जहाँ एक बार आत्म-शांति का अनुभव होता है वहाँ उसका बार-बार जाने का मन होता है। अतः जब भी गुरु चरण में जाएं जिज्ञासा के साथ जाएं। स्वाध्याय के पाँच भेदों में जिज्ञासा (प्रतिपृच्छना) तीसरा भेद है, इसका फल भगवान् ने उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 29 में इस प्रकार बनाया पडिपुच्छणयाए णं भंते! जीवे किं जणयह? प्रश्न - हे भगवन्! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या लाभ होता है? पडिपुच्छणयाए णं सुतत्थतदुभयाइं विसोहेइ, कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिंदह।।20।। उत्तर - प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ दोनों को विशुद्ध करता है और कांक्षा-मोहनीय कर्म को विच्छिन्न-नाश कर देता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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