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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
आचार्यप्रवर सेवा-शुश्रूषा करने में सदैव तत्पर रहते थे और इसमें प्रमोद अनुभव करते थे । आप न केवल सम्प्रदाय के संतों की, अपितु इतर सम्प्रदाय के संतों की सेवा भी निष्पक्ष भाव से करते थे । पूज्य आचार्य जयजी म.सा. की सम्प्रदाय के वयोवृद्ध स्वामी जी श्री चौथमल जी म.सा. के संथाराकाल में आपने जो सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह विरल है । अपने स्वयं के परिवार के संतों में स्वामी जी श्री भोजराज जी म.सा., शान्तमूर्ति श्री अमरचन्द जी म.सा., बाबाजी श्री सुजानमल जी म. सा. प्रसिद्ध भजनी श्री माणकमुनि जी म.सा. आदि सन्तों की अंतिम इच्छानुसार उनकी सेवा में रहकर आपने सेवाभाव को मूर्तरूप दिया । कुचेरा में स्थिरवास विराजित स्वामी श्री रावतमल जी म.सा. की सेवा हेतु दो सन्तों को उनके पास भेजकर आपने दो सम्प्रदायों के मधुरसम्बन्धों को एक कदम आगे बढ़ाया ।
आपमें अन्य गुणों के साथ अपने सिद्धान्त पर हिमालय की तरह अडिग रहने का गुण अन्य लोगों के लिए प्रेरणास्पद रहा । आपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं किया। हमने अरिहन्तों को नहीं देखा, सिद्धों को नहीं देखा, परन्तु आचार्य भगवन्त में हमने अरिहन्तों एवं सिद्धों को प्रतिबिम्बित होते देखा है। महापुरुष किसी एक व्यक्ति, परिवार या सम्प्रदाय के नहीं होते, वे तो सभी के होते हैं, यह बात आचार्य भगवन्त पर लागू होती है। वे सबके थे और सबके लिए थे ।
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प्रकार गुरु हस्ती ने माता-पिता एवं अभिभावक के समान शिष्यों को आध्यात्मिक बल प्रदान किया तथा उन्हें अध्यात्म विद्या के क ख ग से प्रारम्भ करके उच्च कोटि के अध्यात्म ग्रन्थों को पढ़ने, समझने और जीवन में उतारने का प्रशिक्षण दिया । आचार्य हस्ती ने उपाध्याय प्रवर श्री मानचन्द्र जी म.सा. को बड़ी दीक्षा के बाद कहा- 'मेरे को अप्रमत्त भाव में रहकर बतलाना ।' हर समय उनकी शिक्षा रहती थी । वे हर समय मातापिता की तरह सीख देते ही रहते थे। गुरु शिष्य की भूलों को क्षम्य मानकर धीरे-धीरे वात्सल्य पूर्वक उसकी भूलें बताकर सुधारते थे । उसे अपने सान्निध्य में रखकर उसके खान-पान, शयन, वस्त्र, औषध, उपचार आदि का पूरा ध्यान रखते थे । इस प्रकार से आचार्यप्रवर इन्द्रिय-विजय, कषाय-विजय एवं आवश्यकताओं पर संयम, आदतों पर नियन्त्रण एवं स्वेच्छा से शरीर और मन पर कंट्रोल करने का प्रशिक्षण इस प्रकार से देते थे कि अनुशासन में रहना भारभूत नहीं मालूम होता था। गुरु के द्वारा दी गई ताड़ना, उपालम्भ या फटकार शिष्य को औषध की तरह रुचिकर और हितकर लगती है ।
इस प्रकार मैं आपकी कौन-कौनसी विशेषता पर प्रकाश डालूँ । लेखनी से आपके गुणों को अंकित करना संभव नहीं। क्या कभी विराट् समुद्र को नन्हीं सी अंजलि में भरा जा सकता है। वे चतुर्विध संघ के जीवननिर्माण में सदैव सजग रहे । वे स्व एवं संघहित में ही मृत्युंजय बनकर हमें व चतुर्विध संघ को धन्य-धन्य कर गए ।
- 3, रामसिंह रोड, होटल मेरू पैलेस के पास, टोंक रोड, जयपुर-302004 (राज.)
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