________________
155
|| 10 जनवरी 2011
जिनवाणी धरती के किरसान, लोह के लुहार जान शिलावट शिला आन, घाट घडे भारी हैं। कहत त्रिलोक रिख सुधारे ज्यों गुरु सीख
गुरु उपकारी नित लीजे बलिहारी हैं। भावार्थ स्पष्ट है कि जैसे दर्जी कपड़े का थान लेकर पहले नाप लेता है, फिर काटकर सिलाई करता है। इस प्रकार कपड़े को सुधारता है। जैसे काष्ठ को काट छीलकर बढई अच्छी वस्तुएं बनाता है। सुनार सोने को काट पीटकर गहने बनाता है। कुम्हार मिट्टी को सान-गूंदकर बर्तन बनाता है। किसान भूमि को समतल करता है। लुहार लोहे को तथा सिलावट शिला को काट छीलकर अनेक रूप देता है। वैसे ही पितृ हृदय को लेकर उपकारी गुरु शिष्य को अनुशासन, प्रशिक्षण, भूल सुधार आदि से घडता है, उसे तैयार करता है। उसी प्रकार आपश्री ने अपनी संत-सती सम्पदा के जीवन-निर्माण में सर्वोत्कृष्ट प्रशिक्षण देने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जो कि आज सब कुछ हमारे सम्मुख है । उनका संस्कारित परिवार अद्भुत है।
गुरुदेव ने शिक्षा की अनिवार्यता को महत्त्व प्रदान करते हुए फरमाया कि जीवन में शिक्षा के अभाव में साधना अपूर्ण मानी गई है। शिक्षा का वही महत्त्व है जो शरीर में प्राण, मन व आत्मा का है। जीवन में चमकदमक, गति-प्रगति, व्यवहार-विचार सब शिक्षा से ही सुन्दर होते हैं। संसार की सब उपलब्धियों में शिक्षा सबसे बढ़कर है। दीक्षा के साथ अनिवार्य है। यही कारण है कि आज शिष्य-शिष्याओं एवं श्रावकश्राविकाओं को स्वाध्याय-साधना रूप शिक्षा का अनमोल खजाना मिला है।
संवत् 2041 के जोधपुर चातुर्मास में क्षमापना के उपलक्ष्य में युवाचार्य महाप्रज्ञ रेनबो हाउस पधारे तब उन्होंने कहा था कि लोग कहते हैं कि आप अल्पभाषी हैं, कम बोलते हैं। पर कहां हैं आप अल्पभाषी? आप बोलते हैं, बहुत बोलते हैं, आपका जीवन बोलता है, संयम बोलता है, आप में निहित गुरुत्व बोलता है।
आप संघ में रहे तब भी एवं बाहर रहे तब भी सभी महापुरुषों का आपके प्रति समान आदर का भाव रहता था । आचार्य श्री आत्माराम जी म.सा. का आपके प्रति पूर्ण आदरभाव था। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी म.सा. समय-समय पर समस्या का समाधान मंगाते थे। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.सा. स्वयं को साहित्य के क्षेत्र में लगाने में आपका उपकार मानते थे। प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी म.सा. आपको विचारक एवं सहायक मानते थे और प्रत्येक स्थिति में साथ रहे आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. ने आपको सिद्धान्तवादी एवं आचारनिष्ठ माना।
आपश्री गुणप्रशंसक तथा गुणग्राहक रहे, किन्तु पर-निन्दा से सदैव दूर रहे और जीवन-पर्यन्त इसी की प्रेरणा की। आप प्रचार के पक्षधर थे, किन्तु आचार को गौण करके प्रचार के पक्ष में नहीं रहे । जिनके मन में गुरु बसते हैं, वे शिष्य धन्य हैं, पर जो गुरु के मन में रहते हैं, जिनकी प्रंशसा शोभा गुरु करते हैं, वे उनसे भी धन्यधन्य हैं । आपने संघ के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्धन, अनुशासन एवं सर्वतोमुखी विकास व अभ्युत्थान हेतु जीवन समर्पित कर दिया।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org