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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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जहाँ ये पल रहे हैं या बड़े हो रहे हैं? क्या केवल युवा पीढ़ी को दोष देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेनी चाहिए या फिर समाज को, परिवार को अपने दायित्व निभाने के लिए कमर कसनी चाहिए। जहाँ तक बात अपनी है तो स्पष्ट है कि हम विचारशील कहे जाने वाले सामाजिक माहौल को प्रेरणादायक बनाने में नाकाम रहे हैं अथवा इस सम्बन्ध में कुछ किया भी है तो बहुत थोड़ा है ।
आज आवश्यकता है ऐसे आध्यात्मिक गुरुओं की जिनका प्रेरक एवं सम्यक् व्यक्तित्व युवाओं को सन्मार्ग एवं सद्उद्देश्य हेतु चल पड़ने हेतु प्रेरित कर सके। गुरु ही एक दिशा सूचक यंत्र है जो जीवन नैया को गंतव्य स्थान तक पहुँचाता है। सद्गुरु ही हमारी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं जिन्होंने डूबते को बचाया है, गिरते हुए को उठाया है, युवाओं का जीवन संवारा है। इतिहास साक्षी है कि खूंखार डाकू एवं क्रिमिनल इनकी शरण में आकर अपने जीवन को धन्य कर गए। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं- महावीर ने अर्जुनमाली को संवारा, अभिमानी इन्द्रभूति को परम विनयी एवं गणधर बनाया। वीर लोंकाशाह, महात्मा गांधी, आचार्य भगवन्त पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. आदि अनेक महान सन्त मुनियों ने युवकों को प्रेरणा देकर उनके जीवन को सन्मार्ग पर लगाया । वाल्मीकि एक डाकू था, लेकिन नारद ऋषि ने उन्हें रामायण का रचयिता बनाया । कुख्यात डाकू नरवीर को आचार्य यशोभद्रसूरिजी ने शान्ति का पाठ पढ़ाया, , जिससे उसका हृदय परिवर्तन हुआ । बुद्ध की शरण में सम्राट् अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद स्वयं अहिंसक बनकर सम्पूर्ण परिवार को धर्ममय बना दिया । राजा प्रदेशी का जीवन कितना असंस्कारी, अनगढ़ और हिंसामय था। एक बार केशीस्वामी का समागम हुआ तो उनका पापमय जीवन पवित्र बन गया। ऐसा होता है आध्यात्मिक गुरुओं का असर ।
आज के इस पंचम आरे में तीर्थंकर, केवली भगवन्त एवं मनः पर्याय ज्ञानी कोई नहीं है। आज अगर कोई आधार है तो जिनवाणी या आगमवाणी का मंथन कर समझाने वाले गुरु भगवन्त हैं। आज आध्यात्मिक संत ही हमारे जीते जागते तीर्थंकर हैं। हमारा जीवन एक नौका के समान है जो क्रोध, मान, माया, लोभ, व्यसन, कुसंगत, दुराचरण आदि चट्टानों से टकराती रहती है। गुरु भगवन्त आकाशदीप बनकर हमें सूचित करते हैं तथा आगाह करते हैं "हे आत्माओं! आप इस राह पर न जाना! यदि कषायों की चट्टानों से टकरा गए तो भव-भव बिगाड़ लोगे ।” ऐसे गुरुदेव हमें सावधान करते हुए रक्षक एवं प्रहरी का कार्य करते हैं ।
प्रश्न उठता है कि हमारे आध्यात्मिक गुरु कैसे हों ? किस तरह उन्हें पहचाना जाय? युवा पीढ़ी का एक सूत्र है- “ परखो, स्वीकार करो एवं अपनाओ ।" आज का युवा भटका हुआ अवश्य है, लेकिन बुरा नहीं है, उसे मोड़ा जा सकता है उसे प्यार, सहानुभूति, प्रेरणा तथा तार्किक समझाइश की जरूरत है। उसे सन्तों के पास लाने की जरूरत है । क्योंकि गुरु तो वह है जो जीने की कला सिखाए, समस्याओं का धैर्य से समाधान निकालने की विद्या में पारंगत बनाए । सार्थक यौवन को महकाने के लिए ऐसे गुरु आवश्यक हैं जो पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करें। पंच महाव्रती, छः काया के प्रतिपाल तथा 27 गुणों के धारी राग-द्वेष को जीतने वाले तथा जिनाज्ञा में विचरण करने वाले हों। ऐसे गुरुओं का गंडे, ताबीज, अंगूठी, लॉकेट या रक्षा पोटली से कोई
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