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जिनवाणी 10 जनवरी 2011 जागरित नहीं होती। आस्था भी तब तक नहीं जाग सकती जब तक हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल
ताकि गुरु की क्या आवश्यकता है? क्यों हम गुरु को इतना महत्त्व देते हैं ? गुरु-भक्ति क्यों आवश्यक है ? क्या वास्तव में गुरु महिमा का कोई औचित्य भी है ? इन सभी शङ्काओं को अन्तःस्थ कर यहाँ प्रतिपादन किया जा रहा है।
जब हम प्रार्थना करते हैं- असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं ।।' तो यहाँ अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने की हम कामना करते हैं जो गुरु की भक्ति से प्राप्त सज्ज्ञान अर्थात् 'सत्' तत्त्वज्ञान, 'अमृत' तत्त्वज्ञान रूपी 'गुरुतत्त्व' ज्ञान के बिना असम्भव है । अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाला गुरु में स्थित 'गुरुतत्त्व' ही है । 'गुरु तत्त्व' का प्रताप इतना प्रचण्ड है कि बिना गुरु (व्यक्ति) के दर्शन के भी 'एकलव्य' बना जा सकता है, किन्तु इसके लिए 'साधना " आवश्यक है। गुरु का ध्यान ही 'एकलव्य' की साधना थी । वह 'गुरुतत्त्व' जिस व्यक्ति, शास्त्र आदि से प्रकट हो जाए वही जिज्ञासु का 'गुरु' माना जाता है । गुरु अंधकार को अपने 'ज्ञान' से दूर भगाते हैं । लौकिक और वैदिक-दोनों ही क्षेत्रों में ज्ञान को सम्मान का आधार स्वीकार किया गया है । अतः 'मनुस्मृति' में कहा गया है कि धन से उत्तम बन्धु, बन्धु से अतिशय आयु, आयु से श्रेष्ठ कर्म और कर्म से पवित्र ज्ञान वाले उत्तरोत्तर अधिक सम्माननीय हैं और ज्ञानवान् सर्वाधिक आदर योग्य माना गया है।' भगवद्गीता में गुरूपदेश
गीता में भी कहा गया है- 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" अर्थात् ज्ञान के समान संसार में भी पवित्र नहीं है। गुरूपदेश ही वह साधन है जो अन्धकार को दूर करता है । गुरु कुछ के कृपापात्र व्यक्ति के लिए तो ब्रह्मज्ञान भी सुलभ है। गुरुवाणी में ही गुरुता है। गुरु के पास तो केवल ज्ञान है, वाणी है, उपदेश है, विद्या है, कला है। यह उपदेश हमारे जीवन से जुड़ा है। गुरुवाणी में ही सार है।
गुरु के उपदेश में जो सामर्थ्य है वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र में नहीं, किसी मन्त्रोच्चार में नहीं । यह उपदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया तो वह 'गीता' के रूप में विख्यात हो गया। युद्ध में अर्जुन ने स्वयं को श्रीकृष्ण का शिष्य कहा है और उनसे प्रार्थना भी की है कि आप शरणागत मुझ को शिक्षा प्रदान करें।’ ‘गीता' हमारा धर्मग्रन्थ है, आदर्श है, भगवान् की वाणी है। इसमें हमारा अटूट विश्वास है। वस्तुतः यह 'गीता' अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाला गुरूपदेश ही तो है। 'गीता' 'महाभारत' का एक भाग है तथापि 'महाभारत' से 'गीता' जो कि उपदेश है, की ख्याति अधिक है । 'गीता' कोई कथावाचन नहीं है, फिर भी इसका उपदेशात्मक स्वरूप अधिक महत्त्वपूर्ण है, रुचिर है । 'महाभारत' का पाठ करने की परम्परा नहीं है । किन्तु उपनिषद् विद्या होने के कारण 'गीता' के नियमित पाठ की परम्परा है, क्योंकि 'गीता' श्री कृष्ण के मुखारविन्द से साक्षात् निःसृत उपदेश मानी गई है।" 'गीता' पर ही
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