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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 123
सन्मार्गप्रवृत्ति हेतु गुरूपदेश का महत्त्व
सुश्री ऋचा शर्मा
___ गुरु का महत्त्व निर्विवाद है। संस्कृत गद्यकवि बाणभट्ट की कादम्बरी कथा में शुकनास मन्त्री के द्वारा युवराज चन्द्रापीड को प्रदत्त उपदेश 'गुरु-उपदेश' का एक निदर्शन है, जो युवाओं, विद्यार्थियों, राजनेताओं एवं सामान्यजन को भी दिशाबोध प्रदान करता है। शोधछात्रा ऋचा शर्मा ने शुकनासोपदेश के मर्म को समग्रता से प्रस्तुत किया है। साथ ही भगवद्गीता,मनुस्मृति, विवेकचूड़ामणि, धम्मपद आदि ग्रन्थों से भी अपने प्रतिपाद्य की पुष्टि की है। -सम्पादक
भारतीय वैदिक वाङ्मय एवं लौकिक वाङ्मय दोनों ही गुरु-गरिमा से अटे पड़े हैं। गुरु को ब्रह्मा विष्णु, महेश और परब्रह्म की सञ्ज्ञा दी गयी है। ‘ब्रह्म अपनी शक्ति से प्रेरित होकर ब्रह्म-प्राप्ति में लगे हुए सच्चे साधकों का रक्षण, पोषण आदि अनुग्रह करता है। यह शक्ति ईश्वरीय है और इसी को गुरु कहते हैं। शक्ति और शक्तिमान में वास्तविक भेद नहीं होने से ब्रह्म ही गुरु है और गुरु से ही ब्रह्म की प्रतिष्ठा होती है। 'गुरु' शब्द की व्युत्पत्ति
____ गृणाति-उपदिशति वेदादिशास्त्राणि इन्द्रादिदेवेभ्यः असौ गुरुः' अर्थात् जिसने वेद-शास्त्रों का इन्द्र आदि देवताओं को उपदेश दिया, उसे 'गुरु' सज्ञा दी गई, अतः कहा गया- 'कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।' यही गुरु शब्द लोक में वेदादि शास्त्रों, आगम ग्रन्थों के अध्ययनपूर्वक शिष्यों को उपदेश देने वाले लौकिक उपदेष्टा में भी व्यवहत हुआ। इसी प्रकार 'गुकारस्तमसि रुकारस्तन्निवारणे'- यह व्युत्पत्ति भी है अर्थात् 'गु' शब्द का अर्थ है 'अन्धकार' तथा 'रु' शब्द का अर्थ है 'निवारण'। अज्ञानरूपी अन्धकार का ज्ञानरूपी प्रकाश के द्वारा निवारण करने वाले को 'गुरु' कहते हैं। ज्ञान का स्रोत गुरु
'न हि ज्ञानादृते मुक्तिः' अर्थात् ज्ञान के बिना भव-बन्धन से मुक्ति सम्भव नहीं है और ज्ञान की प्राप्ति 'गुरु' के बिना कहाँ ? अतः 'गुरु' को इस भवसागर से पार लगाने वाला माना गया है। गुरुसम्मान की व्याख्या यत्र-तत्र उपलब्ध है। गुरु की आज्ञा का बिना किसी तर्क-वितर्क के पालन करना चाहिए। इस प्रकार के सभी तथ्य तब तक निराधार ही प्रतीत होते हैं जब तक कि इनमें हमारी आस्था
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