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| जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || की क्या जरूरत है? अपने आप ही आगम का पाठ पढ़ लेंगे । गाथाएँ कंठस्थ करना है न? स्वाध्याय की धूनी लगा देंगे। शास्त्रपाठ जीभ पर खेलते रखना है न? स्मृति को धारदार बना देना है न? अपने को प्रवचनकार बनाने के लिए पदार्थों का बोध होना जरूरी है न? अपने को जीवन में एकाग्रचित्तता से शास्त्रों की पंक्ति धारण करनी होगी।
इनके सबके लिए गुरुदेव को बीच में लाने की जरूरत क्या है? गुरुदेव की आराधना करने का प्रश्न ही कैसे उठता है? लेकिन,
याद रखना श्रुत मात्र ज्ञानरूप ही नहीं, अज्ञानरूप भी होता है । समकित के साथ श्रुत ज्ञानरूप और मिथ्यात्व के साथ श्रुत अज्ञानरूप होता है । मोहनीय के क्षयोपशम से होने वाला श्रुत ज्ञानरूप होता है और मोहनीय के उदय से होने वाला श्रुत अज्ञानरूप होता है। दुःख की बात यह है कि हम केवल पदार्थों के बोध को श्रुतज्ञान मान बैठे हैं। शास्त्रपंक्तियों की धारदार स्मृति को श्रुतज्ञान मान बैठे हैं । हजारों श्लोकों के पाठ को श्रुतज्ञान मान बैठे हैं। आगम-वाचन को श्रुतज्ञान मान बैठे हैं। पुरुषार्थ से खाली हुई पदार्थों की छनावट करने की कला को श्रुतज्ञान मान बैठे हैं। नहीं,.
__ यह धारदार स्मृति, यह सूक्ष्म बुद्धि, ज्ञानावरणीय का जबर्दस्त क्षयोपशम सभी को प्रभावित करने वाला पदार्थों का विश्लेषण, इन कलाओं का स्वामी तो अभवी भी बन सकता है । गाढ़ मिथ्यात्वी के पास भी बुद्धि का वैभव हो सकता है। ऐसी तीव्र प्रज्ञा तो विषयदुष्ट और कषायदुष्ट के पास भी हो सकती है। नहीं, इस वैभव को या कला को, इस बुद्धि को या इस प्रज्ञा को शास्त्रकार श्रुतज्ञान कहने को तैयार नहीं हैं। इसका समावेश होता है श्रुत-अज्ञान में । न तो ये गुणों को विकसित करने में सहायक बनते हैं और न ही ये
आत्म-कल्याण में निर्णायक बनते हैं। स्वीकार है,
__ये वैभव कदाचित् लोकप्रिय बना सकते हैं, ये वैभव कदाचित् मन को आनंदित कर सकते हैं, ये वैभव पुण्य बंध का स्वामी बनाकर स्वर्ग के मेहमान बना सकते हैं, पर न तो यह वैभव आत्मा को दोषमुक्त बना सकता है और न ही यह वैभव आत्मा को परमात्मतुल्य बना सकता है। सम्यक् परिणाम लाने की ताकत तो केवल मोहनीय के क्षयोपशम पूर्वक होने वाले श्रुतज्ञान में है और यह श्रुतज्ञान बंधा है अनंत उपकारी गुरुदेव के प्रति हृदय में प्रतिष्ठित बहुमान भाव से। मोहनीय के क्षयोपशम पूर्वक होने वाला श्रुतज्ञान बंधा है- गुरुदेव की भावसहित उपासना से । सद्गतिदायक और परमगति प्रापक यह श्रुतज्ञान बंधा है कृतज्ञतागुण की प्रतीति करने वाली गुरुदेव की आराधना से।
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