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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विचलित नहीं होते। संघर्ष में शान्ति का उपदेश, मन का संतुलन, आचारव्यवहार की स्पष्टता आचार्य श्री के जीवन में पग-पग पर परिलक्षित होती थी। आप संघर्षों को सफलता का प्रतीक मानते थे।
प्रापका आखिरी चातुर्मास मरुभूमि के पाली नगर में हुआ। इस चातुर्मास में अनेक कार्यक्रम, तपस्याएँ उपवास, तेले, मासखमण, पचरंगी आदि हुए। यह परम सौभाग्य की बात है कि आपकी ८१वीं जन्म जयन्ती मनाने का श्रेय आपकी उपस्थिति में पाली संघ को मिला। यह चातुर्मास जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगा।
__ संयम-यात्रा का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए आप सोजत सिटी पधारे । सोजत से निमाज पधारे । अंत में आपने शरीर की अशक्यता का बोध कर निमाज में आमरण अनशन कर वि० सं० २०४८, प्रथम वैशाख शुक्ला अष्टमी को इस देह का व्युत्सर्ग किया । सचमुच एक दिव्य ज्योति महातात्मा का हमारे बीच से प्रस्थान हो गया, परन्तु आज भी वह अमिट लौ लाखों-लाखों मनुष्यों के हृदय में अज्ञान की तमिस्रा को दूर करती हुई भव्यजनों का पथ प्रशस्त कर रही है। अतः उस ज्योतिर्मय दिव्य पुंज, कला-साधक कुंज, साहित्य साधक को हृदय की समस्त शुभ भावनाओं से श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर मैं अपने आपको धन्य और कृतकृत्य अनुभव करता हूँ।
—पाली (राजस्थान)
तेरा नाथ बसे नैनन में
o आचार्य श्री रतनचन्द जी म. सा. तू क्यों ढूंढे वन-वन में, तेरा नाथ बसे नैनन में ।।टेर ।। कइयक जात प्रयाग वाणारसी, कइयक वृन्दावन में । प्राण वल्लभ बसे घट अन्दर, खोज देख तेरा मन में ।। १ ।। तज घर वास बसे बन भीतर, छार लगावे तन में। घर बहु भेष रचे बहु माया, मुगत नहीं छे इन में ।। २ ।। कर बहु सिद्धि, रिद्धि, निधि आपे, बगसे राज बचन में। ये सहु छोड़ जोड़ मन जिनसू, मुगति देय इन छिन में ।। ३ ।। मूल मिथ्यात मेट मन को भ्रम, प्रकटे ज्योत 'रतन' में । सद्गुरु ज्ञान अजब दरसायो, ज्यों मुखड़ा दरपण में ।। ४ ।।
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