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आचार्य श्री को स्थायी स्मृति
- श्री माणकमल भण्डारी
सड़न, गलन और विध्वंस औदारिक शरीर का स्वभाव है और इसी के फलस्वरूप जो औदारिक शरीर धारण करता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। मनुष्य आता है और चला जाता है। अंग्रेजी के एक कवि ने ठीक ही कहा है
For man may come, And man may go, But I go on for ever.
अर्थात् मनुष्य आता है और चला जाता है, परन्तु समय का प्रभाव सदा ही चलता रहता है । महापुरुष जन्म लेते हैं और अपनी आयु पूर्ण कर चले जाते हैं । पीछे छोड़ जाते हैं अपनी यादें, अपने सिद्धांत, अपने उपदेश आदि । इसी यादगार को ताजा और स्थायी रखने हेतु कीर्ति-स्तम्भ, मन्दिर, चबूतरे, आश्रम, अस्पताल, स्कूल आदि का निर्माण किया जाता है ताकि जाने वाले की यादगार को अमर रखा जा सके। परन्तु क्या इस प्रकार के निर्माण स्थायी रह सकते हैं ? सम्भवतया नहीं। पत्थरों के निर्माण कभी स्थायी नहीं होते, समय के साथ नष्ट हो जाते हैं । पत्थरों में स्थायी यादगार मानना एक भ्रान्ति है।
स्थायी स्मृति अन्तर्ह दय में रहती है। वह बाह्य प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। किसी महापुरुष की यादगार उनके बताये हुये मार्ग का अनुसरण करने में है न कि बाह्य निर्माण या प्रदर्शन में ।
आज से ठीक एक वर्ष पूर्व हमने एक ऐसे महान् आध्यात्मिक युग-पुरुष को खो दिया था, जिसने विनाशोन्मुख मानवता को महाविनाश के पथ से मोड़ कर स्व-पर कल्याणकारी विश्वकल्याण के मार्ग पर अनेकानेक लोगों को प्रशस्त किया । उस महापुरुष का जीवन अपने आप में एक खुली पुस्तक था और उस पुस्तक का एक-एक अध्याय हमारे लिये प्रेरणास्पद है। उनके जीवन का एकएक क्षण अमूल्य था। "वसुधैव कुटुम्बकम्' की युक्ति को हृदयगंम कर सभी से मैत्रीभाव रखने की उन्हें सदैव अभिलाषा रहती थी। गुणी व्यक्ति को
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