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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज झलकता था और जनमानस की विकृतियों को दूर करने वाली वचन-शक्ति के आप धारक थे अर्थात् प्राचार्य देव ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, वचस्वी और तपस्वी थे।
आपकी बाह्य जगत् में जो चतुर्विध महिमा थी वह जन-जन में प्रशंसा का एवं इन्द्रिय-विषयों में अनुरक्तों के मन में श्रद्धा का विषय बनी हुई तथा चतुर्विध संघ के गौरव को बढ़ाने वाली थी। वह चतुर्विध महिमा थी
• लघुवय में महापथ पर अभिनिष्क्रमण । • लघुवय में आचार्य पद को सुशोभित करना । • आचार्य पद की सुदीर्घ पर्याय को धारण करना ।
• पंच परमेष्ठी के तीन पद से अर्थात् प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीनों परमश्रेष्ठ पदों से प्रतिष्ठित होना ।
आपश्री ने लाखों किलोमीटर का पद विहार करके राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मद्रास आदि क्षेत्रों में सामायिक-स्वाध्याय का अलख जगाया । जन-मन को सामायिक- स्वाध्याय की मंगल प्रेरणा देकर साधना के लिये उन्हें उत्प्रेरित किया । इन अर्थों में आप मंगल पुरुष थेपावनता के प्रतीक थे।
मिथ्यात्व के प्रभाव से, भौतिकता के तीव्र आकर्षण से पुद्गलानन्दी जीवात्माएँ-जिनकी दृष्टि पर मोह-ममता का जाल था, उनकी आँखों को जिसने ज्ञानरूप अंजन शलाका से खोल दिया। ऐसे गुरुदेव वास्तव में दृष्टिप्रदाता थे। आपकी कृपा से कितने ही पामर प्राणी सम्यक्त्व-रत्न पाकर पावनता से जुड़ गये।
आपके तरण जिस भूमि पर पड़े वहाँ की जनचेतना त्याग-वैराग्य की दृष्टि से सरसब्ज बनी। आप जहाँ भी गये वहाँ आपका कर्म सिर्फ प्रवचन प्रभावनात्मक ही सीमित न रहा, बल्कि आपने वहाँ के जन-मानस को समझा। वहाँ के धर्म प्रेमियों का जीवन शांतिमय-सुखमय बने, इस हेतु उनके पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन पर दृष्टिपात किया । जहाँ-जहाँ भी आपने काषायिक जहर घुलता फैलता-बढ़ता देखा वहाँ-वहाँ आपने वीतरागता का पावन मंत्र सुनाकर सबको विष मुक्त किया । पूज्य श्री के इन सामाजिक-शांति के कार्य जब स्मृतिपटल पर आते हैं तब सहज ही 'दादू' की गुरु-महिमा की यह शब्दावली याद आ जाती है
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